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________________ १६२ भोगोपभोग की वस्तुएं भी क्षीण होने लगती हैं। तृतीय काल में प्रायु एक पल्य और शरीर का प्रमाण एक गव्यूति रह जाता है। चतुर्थ काल में कुलकर, चक्रवर्ती, तीर्थकर नारायण प्रादि महापुरुषों का जन्म होता है । कर्मभूमि का प्रारंभ हो जाता है। इस काल के प्रादि में जगत् गुरु प्रथम तीथंकर आदिनाथ भगवान् ने जन्म ग्रहण किया। इन्होंने सभी कलाओं और शिल्पों का उपदेश दिया। असि, मषि, कृषि, सेवा, शिल्प और वाणिज्य के साथ विवाह आदि क्रियाएं, दान, शील, तप और भावना रूप विशेष धर्म का उपदेश दिया। इस चतुर्थकाल में शरीर काप्रमाण और प्रायु इन दोनों मान घट गया। पंचम काल में आयु एक सौ बीस वर्ष की रह जाती है । उपभोग-परिभोग, औषधि आदि की शक्ति भी उत्तरोत्तर कम होने लगती है। धर्म की अपेक्षा अधर्म का प्रचार बढ़ जाता है । षष्ठ काल के प्रारंभ में आयु बीस वर्ष और शरीर दो हाथ प्रमाण रह जाता है । शारीरिक शक्तियां भी क्षीण हो जाती हैं। धर्माधर्म नाममात्र को रह जाते हैं। अवसर्पण के अनन्तर उत्सर्पण काल का चक्र चलता है । इस प्रकार हरिभद्र ने कालचक्र का विस्तार से वर्णन किया है। वसुदेवहिंडी में "उसभसामिचरियं" में यह कालचक्र ज्यों-का-त्यों मिलता है। कल्पवृक्षों के नामों का क्रम और उनके कार्य भी उपर्युक्त वर्णन के समान ही हैं । यथा-- "प्रोसप्पिणीए छ कालभेदा, तं जहा--सुसमसुसमा १ सुसमा २ सुसमदूसमा ३ समसूसमा ४ दूसमा ५ दूसमदूसम ६ त्ति । तत्थ जा य तइया समातीस दोसागरोवमकोडकोडीपरिमाणाए पच्छिमतिभाए, नयणमणोहर-सुगंधि-मिउ-पंचवण्णमणि-रयणभूसियसरतलसमरम्ममूमिभाए, मह - मदिरा- खीर - खोदरससरिसविमलपागडियतोयपडिपुण्णरयणवरकणयचित्तसोमाणवाविपुक्खरिणी-दीहिगाए, मत्तंगय-भिंग-तुडिय-दीवसिह-जोइ-चित्तंग-चित्तरस-चित्तहारि-मणियंगगहसत्थमत्थमाधूतिलगभूयकिण्णकप्पपायवसंभवमहुर मयमज्जमायणसु सुहसद्दप्प-कासमल्लयकारसातुरसभत्त-भूसण-भवण-विकप्पवरवत्थपरिभोगसुमणसुरमिहुणसे विए काले । इससे स्पष्ट है कि हरिभद्र ने अनेक प्रसंगों में वसुदेवहिंडी से मात्र शैली या वर्णन साम्य ही नहीं ग्रहण किया है, अपितु अनेक विचार और भाव ज्यों-के-त्यों रूप में ग्रहण कर लिय है । नारी के शारीरिक अंकन की पद्धति पर वसुदेवहिंडी का विचार भाव और कल्पनाओं की दृष्टि से पूर्ण प्रभाव है। वसुदेवहिंडी में सुवर्ण भूमि', सिंहल द्वीप और चीन की यात्राओं का उल्लेख किया गया है। इन यात्राओं में यानभंग तथा नायक का काष्ठफलक का अवलम्बन कर समुद्र पार होना आदि बातें भी वर्णित हैं। हरिभद्र ने भी समराइच्चकहा में इन यात्राओं का वसुदेवहिंडी के समान ही उल्लेख किया है। वर्णनपद्धति भी प्रायः समान है। हां, यह सत्य है कि हरिभद्र ने मूलस्रोत ग्रहण करने भी उनमें एक नयी जान डाल दी है। उन्हें एक नया रूप प्रदान कर दिया है तथा अपनी कल्पना और वर्णन की विशेषता के कारण हरिभद्र के प्रसंग वसुदेवहिंडी की अपेक्षा बहुत ही मनोरम और प्रभावोत्पादक बन गये हैं। अब कथानक और वर्णन प्रसंगों के अतिरिक्त समराइच्चकहा में निम्न नगर और पात्रों के नाम भी वसुदेवहिंडी से ग्रहण किये गये प्रतीत होते हैं। इन नगरों का स्थान और सन्निवेश प्रायः दोनों ग्रंथों में समानरूप से वणित है । पात्रों के नाम की समानता के साथ कुछ पात्रों के गुण और वैशिष्ट्य में भी समानता निरूपित है। १--तं जहा-सुसम सुसमा--------------- । स० न० भ० पृ. ६४१--६४७ । २--३० हि० पु. १५७ । ३--वसु० पृ० १४६ ।। ४--वही, पृ० ६६, १४६ । ५--वही पृ० १४६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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