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________________ १८५ (३) श्रमणोपासक (द०हा०गा० ८५, पृ० १०९ ) । (४) खङ्ग पशु ( उप०गा० १४८, पृ० १३२ ) । (५) विषयी शुक ( उप०, पृ० ३९८ ) । afa प्रधान कथाएं किसी उपदेश या धर्मतत्व की व्याख्या के लिए प्रयुक्त हैं। यों तो हरिभद्र की समस्त लघु कथाएं दृष्टान्त या उपदेश कथा के रूप में आयी हैं, पर इन कथाओं में नीति, या धर्म का रहना आवश्यक है । इस श्रेणी के अन्तर्गत निम्नांकित कथाएं हैं: -- (१) सुलसा (द०हा०, पृ० (२) उपगूहन (द०हा०, पृ० (३) अशकट (द०हा०, पृ० २०४ ) । २०८ २०९ ) । ( ४ ) विद्या का चमत्कार (द०हा०, पृ० २१०-२११) । (५) निरपेक्ष जोवी (द०हा०, पृ० ३६१-३६२) । (६) चाणक्य ( उप०गा० ७, पृ० २१) । २२ ) । (७) सहस्रस्तम्भ सभा ( उप०गा० ९, पृ० (८) संवलित रत्न ( उप०गा० १०, पृ० २३) । ( ९ ) संकाश ( उप०गा० ४०३ -- ४१२, पृ० २२८ ) । (१०) सोमा ( उप०गा० ५५० - - ५९७ ) । १०४ ) । (११) वरदत्त ( उप०गा० ६०५ -- ६६३, पृ० २८८ ) । (१२) झुण्टन ( उप०गा० ५५० - - ५९७ ) । (१३) गोबर ( उप०गा० ५५०-- ५९७, पृ० २६९ ) । (१४) कुटुम्ब मारी ( उप०गा० ५५० - - ५९७, पृ० २६९ ) । (१५) सत्संगति ( उप०गा० ६०८ -- ६६३, पृ० २८९ ) । (१६) वसुदेव ( उप०, पृ० २९० ) । (१७) कलि ( उप०गा० ८६७, पृ० ३६८ ) । (१८) ब्राह्मण, वणिक् दृष्टान्त ( उप०गा० ९४६- ९४७, पृ० ३९२ ) । (१९) कुन्तल देवी ( उप०गा० ४९७, पृ० २५० ) । (२०) सूरतेज ( उप०गा० १०१३ – १०१७, पृ० ४१७ ) । "सुलसा " कथा से परीक्षा प्रधानी बनने की नीति पर प्रकाश पड़ता है । यह कथा जीवन के अन्धविश्वास दूर करने की प्रेरणा देती है । "उपगूहन" से परदोष छिपाना, " अशकट", से रागभाव का त्याग, “विद्या का चमत्कार" से गुरुभक्ति, "निरपेक्ष जीवी" से निरपेक्ष भाव से की गयी सेवा या अन्य कार्यसिद्धि, "चाणक्य" से मानव जीवन की दुर्लभता, "सहस्रस्तम्भ सभा" और "स्खलित रत्न" से सम्यकत्व प्राप्ति के कारणीभूत मनुष्य जन्म की दुर्लभता, "संकाश", "शोभा" और "वरदत्त" से विकार त्याग की प्रेरणा, "झुण्टण", "गोबर", "कुटुम्बनारी" और "तिलस्तेन" से हिंसादि पाप त्याग और अहिंसादि व्रत प्राप्ति का उपदेश, "वरदत्त" और "वसुदेव" से चरित्रनिष्ठा, “सत्संगति" से चरित्रोत्कर्ष के लिए सत्संगति की आवश्यकता, "कलि" से दृढ़ संकल्प और चरित्र निर्मलता, "ब्राहमणवणिक" दृष्टान्त से संयम, "कुन्तल देवी" से त्याग एवं सूरतेज से विवेक का उपदेश दिया गया है । इन कथाओं में कथाकार स्वयं ही नीति और उपदेश देता चलता हूँ | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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