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________________ १७९ होती है और विलीन हो जाती हैं। वह अपने को असहाय समझ कर धर्म की शर में जाती है और रात्रि में कायोत्सर्ग ग्रहण कर वह प्रतिज्ञा करती है, कि जबतक यह उपसर्ग दूर नहीं होगा और धर्म निन्दा हटेगी नहीं, तबतक वह निराहार रहकर प्रात्मसाधना करती रहेगी। कुछ दिनों तक अपनी प्रतिज्ञा में दृढ़ रहने पर सती की विजय होती है। उसके शील से प्रभावित होकर नगर रक्षक देव उपस्थित होता है और कहता है--"बहन ! चिता मत करो, तुम्हारी जैसी सतियों के शील से ही इस संसार का परिचालन हो रहा है। मैं अभी नगर के सभी दरवाजों को बन्द कर देता हूं और नगराधिपति को सूचना देता हूं कि ये नगर के फाटक तभी खुलेंगे, जब कोई पतिव्रता चलनी में जल लेकर चले और उस जल की एक बून्द भी उसके सतीत्व के प्रभाव से न गिरे तथा वह यहां प्राकर उस चलनी के जल से इस नगर के फाटक का सिंचन करे। अन्यथा सभी नगर निवासी यहीं घिरकर खाद्य-सामग्री तथा अन्य सुविधाओं के अभाव में मर जायेंगे।" प्रातःकाल नगराधिपति ने . नगर की समस्त पतिव्रताओं को आमंत्रित किया। सभी चलनी में जल लेकर चलीं, पर वह जल एक-दो कदम चलने के बाद ही गिर गया। सुभद्रा के सतीत्व के प्रभाव से चलनी का जल नहीं गिरा और उसके द्वारा जल छींटने पर नगर के द्वार खुल गये। नगर की समस्त त्रस्त जनता ने सुभद्रा का जयघोष किया। चरित्र का उदात्त और परिष्कृत रूप कथाकार ने उपस्थित कर समस्त कथावस्तु को गतिशीलता प्रदान की है। __ "सहानुभूति" शीर्षक कथा में एक दुश्चरित्रा के चरित्र को सहानुभूति पूर्ण व्यवहार के द्वारा उज्ज्वल बनाने का संकेत उपस्थित किया गया है। एक वणिक् की भार्या किसी अन्य व्यक्ति के प्रेम में आसक्त थी। पति के घर में रहने से उसका यह प्रेम व्यापार अबाधित रूप से नहीं चल पाता था, अतः उसने अपनी चालाकी से पति को गाड़ी में ऊंट का लेंडा भरकर उज्जयिनी भेज दिया और स्वयं निर्द्वन्द्व होकर आनन्द करने लगी। उज्जयिनी पहुंचने पर उस वणिक् की मुलाकात मूलदेव नामक व्यक्ति से हुई। मूलदेव ने अपने बुद्धिचातुर्य से गाड़ी के समस्त लेडाओं को बिकवा दिया और उससे कहा कि तुम्हारी स्त्री दुराचारिणी है, अतः तुम उसे कुमार्ग से हटाकर सुमार्ग पर लगाओ। यदि तुम्हें मेरी बातों का विश्वास न हो तो चलकर उसकी परीक्षा कर लो। वह वणिक् मूलदेव के साथ छिपे वेश में घर आया तो उसने अपनी स्त्री को कहते पाया--"मेरा पति परदेश में रहकर सैकड़ों वर्ष तक जीवित रहे, पर घर कभी म लौटे। मेरे जीवन की रंगरेलियां इसी प्रकार चलती रहें।" मूलदेव के साथ वणिक घर से चला गया और प्रातःकाल पुनः घर में आया। उसकी स्त्री ने पति के लौट आने से कृत्रिम प्रसन्नता दिखलायी। पति ने उसकी दुष्प्रवृत्तियों को रोकने के लिए सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करना आरम्भ किया। कुछ काल के पश्चात् वह नारी सुमार्ग पर लौट आयी। इस कथा में अति प्राकृतिक और अमानवीय तत्वों की योजना भी है, पर वह कथारस में बाधक नहीं है। प्रेम और साहस की भावनायें ही इसमें नहीं है, बल्कि अर्थशास्त्र के सिद्धांत तथा तत्कालीन समाज की कुछ समस्यायें भी चित्रित हैं। "विषयासक्ति" में लेखक ने जीवन के मार्मिक पक्ष पर प्रकाश डाला है। मानव का अन्तस् विषयच्छा के निग्रह के अभाव में उत्तरोत्तर सुख सामग्री चाहता रहता है। क्षुल्लक दीक्षा धारण करने वाला पुत्र अपने जीवन में निरन्तर सुख-सुविधाएं चाहता था। बरीय साधु, उसका पिता ही था, अतः पुत्र को सुखी बनाने के लिए वह संघ से सभी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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