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________________ द्वितीय आख्यान में अंडे से उत्पन्न हुई सृष्टि की असारता दिखलायी है । कण्डरीक ने अपने अनुभव का वर्णन करते हुए कहा है कि उत्सव में सम्मिलित हुए सभी लोग डाकुमों के डर से कद्द में समाविष्ट हो गये । कद्द को बकरी ने खाया, बकरी को अजगर ने खाया और अजगर को लिंक --सारस विशेष ने। जब यह सारस बट वृक्ष पर बैठा था कि राजा की सेना इस वृक्ष के नीचे आयी और एक महावतने गज को वट की डाल समझ कर सारस की टांग से बांध दिया। सारस उड़ा, जिससे हाथी भी उसके साथ लटकने लगा । महावत के शोर मचाने पर शब्दभेदी वाण द्वारा सारस मार दिया गया और अजगर, बकरी, कद्द,प्रादि को क्रमशः फाड़ने से जनसमूह निकल आया। कण्डरीक के इस अनुभव का समर्थन विष्णुपुराण के आधार पर करते हुए एलाषाढ़ बोला--"सृष्टि के आदि म जल ही जल था। इसकी उत्ताल तरंगों पर एक अंडा चिरकाल से तैर रहा था। एक दिन यह अंडा दो समान भागों में टूट गया। उसका एक अर्धांश हमारी यह पृथ्वी है। जब अंडे के एक अर्धांश में सारा संसार समा सकता है तो कद्द में एक छोटा समूचा गांव क्यों नहीं अट सकता है ?" इस प्रकार कथा के संकेतों द्वारा सृष्टि-उत्पत्ति की मान्यताओं का निरसन कर उसकी स्वाभाविकता का कथन किया गया है। सृष्टि-प्रलय के सम्बन्ध में महाभारत के अरण्यपर्व एवं अन्य पौराणिक ग्रन्थों में चर्चा आती है कि प्रलयकाल में सारी सृष्टि ब्रह्मा के उदर में समाविष्ट हो जाती है। प्रलय के अनन्तर जब पुनः सृष्टि की उत्पत्ति होने लगती है तो सारी सृष्टि ब्रह्मा के उदर से निकल पाती है। अतः जिस प्रकार ब्रह्मा के उदर में जड़-चेतनात्मक सारा संसार समाविष्ट हो जाता है, उसी प्रकार वह ग्राम भी जन-समुदाय एवं पशुवर्ग सहित चिमड़े कद्द में समाविष्ट हो सकता है और उसमें से कुछ काल बाद निकल भी सकता है। हरिभद्र ने यहां पर भी अन्यापदेशिक शैली द्वारा सृष्टि की खंड प्रलय का नैसर्गिक संकेत दिया है। यह सृष्टि अनादि अनन्त है। इसका पूर्ण संहार कभी नहीं होता है। ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर को स्वरूप मान्यता के सम्बन्ध में अनेक मिथ्या धारणाएं प्रचलित हैं, जिनका बद्धि से कोई सम्बन्ध नहीं है। प्रथम प्राख्यान में बताया गया है कि ब्रह्मा ने एक हजार दिव्य वर्ष तक तप किया। देवताओं ने इनकी तपस्या में विघ्न उत्पन्न करने के लिए तिलोत्तमा नाम की अप्सरा को भेजा। तिलोत्तमा न उनके दक्षिण पार्श्व की ओर नाचना शुरू किया। राग से उसका नृत्य देखने और उसका एक दिशा से दूसरी दिशा में घूम जाने के कारण ब्रह्मा ने चारों दिशा में मुख विकसित ये। जब तिलोत्तमा ऊर्ध्व दिशा में नत्य करने लगी, तो ब्रह्मा ने पांचवां मख मस्तक में विकसित किया। ब्रह्मा को इस प्रकार काम विचलित देखकर रूद्र ने उनका पांचवां मुख उखाड़ फेंका। ब्रह्मा बड़े क्रोधित हुए और उनके मस्तिष्क से पसीने की बूंदें गिरने लगों, उनसे श्वेतकुंडली नामक पुरुष उत्पन्न हुआ और उसने ब्रह्मा को प्राज्ञा से शंकर का पीछा किया। रक्षा पाने के लिए शंकर बद्रिकाश्रम में तपस्या में निरत विष्णु के पास पहुंचे। विष्णु ने अपने ललाट की रुधिर शिरा खोल दी। उससे "रक्तकुंडली' नामक पुरुष निकला, जो शंकर की प्राज्ञा से श्वेतकुंडली से युद्ध करने लगा। दोनों को युद्ध करते हुए एक हजार दिव्य वर्ष व्यतीत हो गये, पर कोई किसी को हरा न सका। तब देवों ने उनका युद्ध यह कहकर बन्द कराया कि जब महाभारत-युद्ध होगा, तब उसमें लड़ने को तुम्हें भेज दिया जायगा। १--कण्डरीक आख्यान गाथा--२६-३० । २--४० द्वि० प्रा० गा० ३१-३६ । ३--वही, ५६-८१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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