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________________ रहस्य घटनान्त में प्रकट होता है । लेखक ने इस स्थल पर साध्वी से प्रात्मकथा कहलायी है और उस हार का तथाकथित सम्बन्ध अपने साथ जोड़ा है । पाठक यहां हार की चोरी का रहस्य जानने के लिये जितना अधिक उत्सुक है, उससे कहीं ज्यादा चित्रगत मयूर के रहस्य को जानने के लिये । सेनकुमार के चरित्र की प्रारम्भिक विशेषताएं ही कुतूहल उत्पन्न करने में समर्थ हैं, इसी कारण नायक के जीवन का लम्बा सूत्र चलता है । नायक की वीरता, उसके साहसपूर्ण कार्य एवं त्याग, उदारता आदि का सांगोपांग वर्णन इस कथा में है । प्रतिनायक सेनकुमार मुनि की हत्या में विफल होता है । क्षेत्र देवता उसे नाना तरह से समझाता है और तब भाई के प्रति आदर भाव रखने को कहता है । जब वह नहीं मानता, अपने कुत्सित कार्य के लिये कृतसंकल्प ही हो जाता है तो देवता उसे कष्ट देते हैं। हत्या न भी करने पर सेनकुमार की भावहत्या के कारण वह नरक गति का बन्ध करता है । __नायक को अक्षत रखना और प्रतिनायक को दैवी प्रकोप का पात्र बनाना भी इस . कथा का एक लक्ष्य है । इतना सत्य है कि मानव शक्ति को अपेक्षा अदृश्य शक्ति का चित्रण भी इस कथा में एक दोष है। घटनातंत्र का लम्बा होना और कथानकों में विभिन्न प्रकार की गतियों का उत्पन्न करना, कला-कुशलता का परिचायक है । कथा दृष्टि से यह आश्चर्य की बात है कि नायक द्वारा इतना अधिक त्याग दिखलाये जाने पर भी प्रतिनायक के हृदय में परिवर्तन क्यों नहीं होता है ? निदान शृंखला हो इसका समाधान है । कथाकार ने जन्म और कर्म की कार्य-कारण परम्परा द्वारा नैतिक मानदण्डों की महत्ता प्रकट कर अपने उद्देश्य की सिद्धि को है। अष्टम भवकथा : गणचन्द्र और वानमन्तर पूर्वोक्त सात भवों में गुणसेन को प्रात्मा का पर्याप्त शुद्धीकरण हो जाता है । प्रतिद्वन्द्वी अग्निशर्मा वानमन्तर नाम का विद्याधर होता है और गुणसेन गुणचन्द्र नाम का राजपुत्र । प्रथम भव की कथा में जिन प्रवृत्तियों का विकास प्रारम्भ हुआ था, वे प्रवृत्तियां क्रमशः पूर्णता की ओर बढ़ती हैं। __ यह कथा विषय की तथ्यता के साथ निश्चित प्रभाव को सृष्टि करती है। घटनामों, परिस्थितियों और पात्रों के अनुकूल वातावरण का निर्माण होता है । जिस प्रकार सुगठित और सम्पन्न शरीर के विभिन्न अवयवों का उचित सामंजस्य रहता है, उसी प्रकार इस कथा में कथा के अवयवों का उचित सामंजस्य है । मानव जीवन का सर्वांगीण चित्रण, कथानक को क्रमबद्धता और जीवनोत्थान के सूत्रों की अभिव्यंजना भी इस कथा के वैशिष्ट्य के अन्तर्गत है। कथा का प्रारम्भ बिलकुल अभिनयात्मक ढंग से होता है । मदनोद्यान में स्थित कुमार गुणचन्द्र चित्रकला का अभ्यास कर रहा है । उसको तूलिका काण्ठफलक और वस्त्रफलकों के ऊपर विविध रंगों के मिश्रण से नये संसार की सृष्टि करने में संलग्न है । वात नम्बर कुमार को इस प्रकार चित्रकला के अभ्यास में व्यस्त देखकर अकारण क्रुद्ध हो जाता है । जन्म-जन्मान्तर को शत्रुता उबुद्ध हो जाती है और वह कुमार को शारीरिक हानि पहुंचाने की चेष्टा करता है । कुमार की अतुलित शक्ति के सामने उसका कुछ भी वश नहीं चलता है । वह लाचार हो कुमार को भयभीत करने के लिये भयंकर शब्द करता है, पर हिमालय की अडिग चट्टान के समान कुमार निष्कम्प रहता है । उसे क्षुब्ध करने १-स० पृ० ७ । ७२६ । २--स० पृ० ८ । ७३६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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