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________________ १६४ इस कथा में नाटकीय शैली अपनायी गयी है । नायक के कार्य-व्यापार के साथ tre व्यक्तियों के वार्तालाप शैली के विकास में सहयोग प्रदान करते हैं। घटनाओं की योजना तथा मुख्य घटना की निष्पत्ति स्वाभाविक रूप से होती हैं । परिस्थितियों के उत्थान - पतन, सहयोग, कथानकों की योजना, चारित्रिक संवेदना की संबद्धता, कथा की रसमयता आदि गुण इस कथा के उल्लेख्य हैं । सप्तम भवः सेन और विषेणकुमार की कथा उत्थानिका के पश्चात् कथा का आरम्भ एक आश्चर्य और कौतूहलजनक घटना से होता है । चित्र खचित मयूर का अपने रंग-बिरंगे पांव फैलाकर नृत्य करने लगना और मूल्यवान् हार का उगलना' अत्यन्त श्राश्चर्यचकित करने वाली घटना है । कहीं जड़ मयूर भी नृत्य करता है ? पाठक की जिज्ञासा इस रहस्य को जानने के लिये उतावली हो जाती है । वह रहस्यान्वेषण के लिये प्रयत्नशील हो जाता है । कुशल कथाकार न े रहस्योद्घाटका साध्वी को उपस्थित कर संयोग तत्व की सुन्दर योजना की है । साध्वी कर्म श्रृंखला के प्रसंग में इस विचित्र घटना को एक व्यन्तर द्वारा सम्पादित बतलाकर पाठक के समक्ष दिव्य शक्ति का उदाहरण उपस्थित करती हैं । यहां चित्र, मयूर, नृत्य और हार इन चारों इतिवृत्तांशों का संबंध संस्कार जन्य जीवन की वास्तविक वेदना के साथ है । कथा की यह मूलसत्ता नायक प्रतिनायक के जीवन धरातल का पूर्ण स्पर्श करती है । इस घटना द्वारा रसावेग के साथ जीवन के रसमय चित्रांकन का कार्य भी सम्पन्न हो जाता है । इस कथा की एक अन्य विशेषता मधुर पारिवारिक चित्र उपस्थित करने की है । प्रारम्भ से अन्त तक कथाकार अपने इस लक्ष्य की पूर्ति के लिये सतर्क है । धनपति और धनवाह नामक सार्थवाहों की बहन गुणश्री विधवा हो जाती है। वह अपने नीरस जीवन से विरक्त होकर चन्द्रकान्ता नामक गणिनी के पास दीक्षा धारण करना चाहती हैं । इस कार्य के लिये वह अपने भाइयों से अनुमति लेती हैं, पर भाई स्नेह-बन्धन के कारण उसे स्वीकृति नहीं देते और उसके धर्म साधन की समस्त व्यवस्था कर देते हैं । घर में हो जिनालय बनवाया जाता है, सुन्दर भव्य प्रतिमाएं विराजमान की जाती हैं । प्रष्ट द्रव्य से पूजा करने के सारे उपकरण एकत्र किये जाते हैं। भौजाइयों के साथ उसका प्रेमपूर्ण व्यवहार हैं, पर इस प्रकार से बहन के निमित्त धन व्यय करना उन्हें रुचता नहीं । अतः व े ईर्ष्या-द्वेष करती हैं, कलह का बीज वपन होता है । ननद अपनी भौजाइयों को समझाती है और उनसे साड़ी की रक्षा करने का अनुरोध करती हैं । एक भाई को अपनी पत्नी के आचरण पर शंका हो जाती है, अतः वह कुलशील की रक्षा के लिये उसे निर्वासित करना चाहता है । जब बहन को इस अनर्थ का पता लगता हैं तो वह भाई को समझाती हैं और घर में सुख तथा प्रेम का साम्राज्य स्थापित करती I मूलकथा का नायक सेनकुमार अपने चचेरे भाई विषेणकुमार द्वारा जब भी वगावत की जाती है या उसके मारने की चेष्टा, तो वह अपने भाई का ही विश्वास करता है १ - स ० पृ० ७ । ६११ । २ - वही, ७ । ६१० । ३ -- वही, ७ । ६१३ ॥ ४ - वही, ७ । ६१४ । ५ - वही, ७ । ६१४ । ६- त्रहो, ७। ६१४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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