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________________ करने में भी वह अपनी शानी नहीं रखती। स्त्रियोचित सारी कमजोरियाँ उसमें विद्यमान है । सनत्कुमार द्वारा प्रेम प्रस्ताव के ठुकराये जाने पर वह घायल सर्पिणी बन जाती है और तत्काल ही बदला लेने के लिये कृतसंकल्प हो जाती है । लेखक ने इस स्थल पर सेक्स को मुक्तभाव से बिना झिझके स्पष्ट व्यंजना की है। विजयकुमार अपने भाई के विरुद्ध राज्य प्राप्ति के लिये बगावत करता है। राजा बना दिये जाने पर भी अपने साधु भाई की हत्या करता है । मां के प्रति ममता और आदरभाव की सुन्दर अभिव्यंजना की गयी है। मां के रूप में नारी से मानव सदा अजस्त्र, अक्षय स्नेह तो पाता ही है, साथ ही उसके प्रति अपनी असीम श्रद्धा भेंट करता है । जयकुमार राजा होने के पश्चात् जब अपनी मां को विजयकुमार के बन्धन बद्ध रहने के कारण दुःखी पाता है, तो उसका हृदय ममता से भर जाता है । वह मां को प्रसन्न करने के लिये राज्यपद का त्याग कर देता है और अपने भाई विजयकुमार का राज्याभिषेक करा देता है । जयकुमार के चरित्र की यह उदात्तता तो है ही साथ ही मां के प्रति उसकी असीम ममता भी टपकती है । इस कथा में परिवार संघटन और उसको समस्याओं का समाधान अंकित किया गया है । इस भव की कथा को प्रमुख विशेषता रस, विवेक और विचार इन तीनों तत्वों के उचित सम्मिश्रण की है। प्रेम व्यापार में भी विचार और विवेक साथ नहीं छोड़ते। पात्र जीवन रस का पूरा उपयोग करते हैं, उसकी बाढ़ में बहते नहीं। शैली मनोरंजक षष्ठ भव: धरण और लक्ष्मी की कथा गुणसेन और अग्निशर्मा इन दो परस्पर विरोधी युगलों की कथा धरण और लक्ष्मी पति-पत्नी के रूप में छठे भव में वर्णित है । घटना बहुलता, कुतूहल और नाटकीय ऋमविकास की दृष्टि से इस भव की कथा बड़ी रोचक और पालादजनक है। कथा की वास्तविक रंजनक्षमता उसके कथानक गुम्फ न में है। स्वाभाविकता और प्रभावान्विति इस कथा के विशेष गुण है । पात्रों में गति और चारित्रिक चेतना का सहज समन्वय इसका जोरदार कथाविधा को प्रमाणित करता है । घटनाओं की सम्बद्ध शृंखला और स्वाभाविक क्रम से उनका ठीक-ठीक निर्वाह घटनाओं के माध्यम से नाना भावों का रसात्मक अनभव कराने वाले प्रसंगों का समावेश इस कथा को घटना, चरित्र, भाव और उद्देश्य को एकता प्रदान करता है । अन्य भावों की प्रचलित शैली और कथानक गुम्फन से भिन्न इसमें कथा की अधिक प्रसंग गभित शैली अपनायी गयी है । इस शैली के द्वारा पाठक आरम्भ से अन्त तक चरित्रों, घटनाओं तथा मनोवृत्तियों आदि के विषय में अनजान एवं उत्सुक बना रहता है और अन्त में वास्तविक घटनाओं के उद्घाटन से प्रभावित एवं पाश्चर्यचकित हो जाता है । इस भव की कथा में नायक की चरित्र व्यंजक और रोचक ऐसी अनेक घटनामों की अवतारणा की गयी है, जिनसे इसके कथातत्व की संकीर्णता मिट जाती है । कार्य-व्यापार की संघटना और सम्पूर्णता को कथामूल्यों की दृष्टि से एक श्रेष्ठ-रूढ़ि-निरपेक्ष प्राधार मिल जाता है । अपने आकार, विन्यास, चरित्र-चित्रण और प्रधान नायक में अन्तर्मुखी वैराग्य की प्रवृत्ति का विकास दिखलाने की दृष्टि से इस कथा का कथातत्व सर्वाधिक चिसम्पन्न और प्रत्रुटिपूर्ण है ।। १--विजनो य पोसण--स० पृ० ५। ४८१ । १९--२२ एडु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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