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________________ ने अद्भुत व्यंग्य उपस्थित किया है। राजा यशोधर स्वप्न में देखता है कि उसकी माता उसे सीढ़ियों से ढकेलकर आप स्वयं भी लुढ़क जाती है--और जागने पर माता के कहने से अन्न-कुक्कुट का वध करता है और इस तरह माता और पुत्र स्त्रीयोनि और पुरुषयोनियों में भटकते रहते है और रह-रह कर पूर्वजन्म की स्मृति हो जाया करती है । नयनावली कष्ठ और दुर्गन्ध से सड़ जाती है। माता भैस और पुत्र पशु होते हैं। दोनों के मांस काट-काट कर उस विलासी राजा को खाने को दिया जाता है, जो यशोधर का ही पुत्र है । मृत्यु कभी-कभी यों ही आकस्मिक रूप में पाखट के तीर लग जाने से हो जाया करती है । मृत्यु में कोई अवसाद या विषाद की भावना नहीं, मात्र शरीर परिवर्तन का दैवात् योग है । अतएव निम्न बातें इस कथा से हाथ पाती है:-- (१) कथाओं में निर्ममता कूट-कूट कर भरी है अर्थात यथार्थ कथन ही निर्ममता, बिभित्सा, क्षुद्र आसक्ति, ऊंच-नीच के विचार से पर शुद्ध नग्न पाशविक वासना का सत्य निस्संकोच निरूपित कर दिया जाता है। वर्ण, संस्कार परम्परा अादि की परवाह नहीं की जाती । (२) व्यंग्य की आद्योपान्त व्याप्ति : इधर चाण्डाल को दया, उधर पत्नी पति को कुबड़े के लिये विष देती है । (३) स्वप्न जगत् और जाग्रत जगत का सम्बन्ध "गिराप्रर्थ, जलबीचि" जैसा है। स्वप्न में प्रतीक सामन पाता है, पर जाग्रत में घटना के द्वारा टीका प्रस्तत की जाती है । अतः इस अन्तर्जागतिक अन्योन्याश्रयता कहा जायगा। (४) व्यंग्य का दूसरा रूप भी जहां अशिव से शिव का लाभ--पत्नी ने विष देकर समुद्र में ढकेल दिया, समुद्र के लवणोदक से विष की शांति तथा बहता हुआ तख्ता मिला और पति उस पार । धन को लोकसार रत्नावली हार की प्राप्ति होती है । धन राजा के कर्मचारियों द्वारा पकड़ा जाता है, सार्वजनिक प्रमाण के लिये रत्नावली हार वधस्थान तक जाता है, चील उड़ा ले जाती है। कापालिक ने सर्पदंश का मन्त्र दिया था, जिससे वह राजा के मतपत्र को जीवित करता है।----फिर घूमते-फिरते जंगल में हाथी उसे ऊपर फेकता है और चील के घोंसले में रत्नावली हार मिल जाता है । राजा को वह लौटा दिया जाता है । अब हार जिसका है, उसको ही मिलकर रहता है । अतएव चोरी भी जड़ के भ्रमण का इतिहास ही है । अन्ततोगत्वा वस्त स्वामी को ही प्राप्त होती है. इस मर्म के लिये नायक के साथ रत्नावली हार को कथा का जोड़ है । पर यह सत्य है कि इस प्रकार की घटना संकुलता से जी ऊबने लगता है । ___ इस कथा के शिल्प में विशेष बात यह है कि तथ्य अपने मूल रूप में पड़ा रहता है, सर्वत्र व्याप्त, पर एक स्थान पर अवस्थित नहीं और जड़-चेतन की घटनाओं, अवान्तर कथानों का सहारा लेकर कई दिशाओं से तथ्य पर प्रकाश की किरणें पड़ती रहती है-- इस तरह उसके स्वरूप का विविध दिशाओं से अवलोकन होता है और गान पुनः पुनः अपनी टेक पर लौट आता है । ?--स० पृ० ४।२५४ । २--वही, ४ । २६५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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