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________________ तथा स्वर्ण आदि के रंगों के प्रति दिव्य कान्तिमयता एवं द्रव्य के प्रति विलासिता आदि भी इस प्रतीक द्वारा अभिव्यंजित होती है । टूटना गर्भविनाश के प्रयास और अन्ततोगत्वा गर्भस्थ प्राणी की हत्या की अभिव्यंजना करता है । लगता है कि घटना घटित होने के पूर्व ही लेखक अन्यापदेशिक शैली में किसी प्रतीक का प्रयोग कर घटना का सारा भविष्य अंकित कर देना चाहता है । नारिकेल की जिज्ञासा कथा की दवात या बलात् नहीं, बल्कि प्रतीक के रूप में है । यह ऊपर से देखने में जीव, पर मूल-पूर्व जन्मों को पीठिका है । जन्मजन्मान्तर में कर्मों की परम्परा का रहस्य दिखलाया गया है । कर्मफल के अनसार जन्म-जन्मान्तरों के योनिभेद में सतर्कता और सार्थकता है । विष दिया--सांप बना--भीतर विष रहता है। सांप मारा गया तो सिंह बना--प्राक्रमण का अवतार । दोनों ने एक दूसरे को मारा तो दोनों चाण्डाल बने--अधमता का प्रतीक । अनन्तर एक ने गुरु का आश्रम ग्रहण किया तो जन्म और चरित्र में भेद । आवृत्ति पर आपत्ति हो सकती है, लेकिन जहां कर्म-धर्म की शृंखला दिखलायी जाती है, वहां यह प्रावत्ति आवश्यक है कि पाठक के विरोध करने या पलायन करने को प्रवृत्ति बिलकुल मारी जाय और वह समर्पण कर दे तथा कल्याण का मार्ग स्वयं ही प्राप्त करने की चेष्टा करें । स्थापत्य को दष्टि से इसका स्थापत्य द्वन्द्वात्मक कहा जा सकता है। माता ने पुत्र को मारना चाहा--भाव, गुरु की शरण में जाना प्रतिभाव, पश्चात् दीक्षा धारण करना समन्वय, माता द्वारा विष का षड्यन्त्र--प्रतिभाव, समस्त बातों को जानते हुए भी पुत्र की माता के प्रति करुणा--समन्वय इत्यादि द्वन्द्वों की श्रृंखला चलती है । कथा विधा की दष्टि से निम्न कमियां भी इस कथा में हैं :-- (१) दार्शनिक तर्कों की भरमार रहने से कथारस में न्यूनता । (२) उबा देने वाली प्रावृत्तियों की भरमार । (३) प्रधान कथारस में बाधक अवान्तर कथाओं का विस्तार । __ चतुर्थ भव : धन और नधश्री कथा -- यह कथा बहुत सरस और रोचक है। कथा का प्रारम्भ गाहस्थिक जीवन के रम्य दश्य से होता है । कथानायक धन का जन्म होता है और वयस्क हो पूर्वभव के संस्कारों से प्राबद्ध धनश्री को देखते ही वह उसे अपना प्रणय अपित कर देता है । धनश्री निदान कालुष्य के कारण उससे अकारण ही द्वेष करने लगती है । कथाकार ने इस प्रकार एक ओर विशुद्ध आकर्षण और दूसरी ओर विशुद्ध विकर्षण का द्वन्द्व दिखलाकर कथा का विकास द्वन्द्वात्मक गति से दिखलाया है । इस कथा में परिचय प्रथुलता--नगर का कोई पात्र हैं तो नगर के राजा का नाम, जिस माता-पिता का कथा में कोई प्रयोजन नहीं, उनके भी नाम, पूर्व जन्म के सम्बन्धों को कड़ी जोड़ने के लिये पूर्वजन्म के प्राचार्य का नाम, पूर्व जन्म के मित्र का नाम वर्तमान हैं । नन्दक पूर्वजन्म में प्रार्जव कौण्डायन का अनुयायी था और अग्निशर्मा ५--ताणं च परोप्परं सिणे हत्तर --------स० पृ० ४।२३५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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