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________________ १५० तैयार हो सकते हैं । मुख्य घटनाओं में जहां एक ओर परिस्थितियों का स्पष्टीकरण हैं, वहां दूसरी ओर जीवन की विभिन्न समस्यात्रों का आरम्भ हैं । कथासूत्र गुणसेन और अग्निशर्मा की सत् असत् प्रवृत्तियों के घात-प्रतिघात से आगे बढ़ता है । धार्मिक frयमों की व्याख्या बीच-बीच में होती चलती हैं । कथाकार अपने लक्ष्य क अनुसार गृहस्थ धर्म और मुनिधर्म के चित्र उपस्थित करता हुआ आगे बढ़ता है । उच्चतम श्रेय की प्राप्ति इसका लक्ष्य हैं । प्रधान पात्र गुणसेन में धार्मिक चेतना की निरन्तर क्रियाशीलता वर्त्तमान है । इस कथा में गुणसेन का सांसारिक से प्राध्याfree की ओर तथा अग्निशर्मा का प्राध्यात्मिक से सांसारिक की ओर प्रयाण एक संघर्षवक्त, विकारग्रस्त धरातल पर चित्रित करना कथाकार का प्रधान लक्ष्य है । मानवीय ईर्ष्या, भर्त्सना, व्यंग्य, छल, श्रनित्यता और नश्वरता से उत्पन्न विराग भावना इस कथा की समस्त चारित्रिक ग्रन्थियों का मूल हैं । उपर्युक्त गुणों के अतिरिक्त इस कथा में निम्न दोष भी विद्यमान हैं : --- १ । प्रवान्तर कथा का सघन जाल कथारस को क्षीण करता है और पाठक का कथा के साथ तादात्म्य नहीं हो पाता । २ । उपदेश और धार्मिक सिद्धान्तों की प्रचुरता के कारण पाठक सिद्धान्तों में उलझ जाता है, जिससे कथा के वास्तविक आनन्द से वह वंचित रह जाता है । ३ । कथा की चरम परिणति सशक्त नहीं हो पायी है । ४ । अवान्तर कथाओंों को लोक-कथानों के धार्मिक चौखट में फिट करने के कारण अवान्तर कथाओं का कथास्व विकृत हो गया है और अवान्तर कथाएं प्रतीत प्रधूरी-सी होती हैं । द्वितीय भव: सिंहकुमार, कुसुमावली और आनन्द की कथा दूसरे भव का कथानक और उसका विन्यास अत्यन्त ऋजु और वास्तविकतापूर्ण 1 कथा का कार्य एक विशेष प्रकार का रस-बोध कराना माना जाय तो यह कथा जीवन के यथार्थ, स्वाभाविक पहलुओंों के चित्रण द्वारा हमें विश्वासयुक्त रसग्रहण की सामग्री देती है । इस कथा का प्रारम्भ ही प्रेम प्रसंग की गोपनीय मुद्रा से होता है, विवाह की विधि अनेक रोचक प्रक्रियाओं के पश्चात् आती हैं, हठात् निश्चय के बाद नहीं 1 वसन्त के मनोरम काल में उद्यान - बिहार के अवसर पर, जबकि प्रकृति में सर्वत्र मादकता और रमणीयता विद्यमान रहती हैं, प्रेम का विकास होता है । प्रथम दर्शन के पश्चात् ही वे एक दूसरे को अपना हृदय समर्पित कर देते हैं, वासना प्रेम का स्थान ले लेती हैं और प्रेमांकुर विवाह वृक्ष के रूप में विकसित हो जाता है । प्रेम के अनन्तर विवाह का आदर्श उपस्थित करना रोचकता की वृद्धि के साथ जीवन की यथार्थता को प्रदर्शित करना है । आनन्द कथा की यही यथार्थवादी दृष्टि प्रानन्द में अहं का प्रतिष्ठापन करती है । पिता के द्वारा दिये गये राज्य का उपभोग नहीं करना चाहता है, उसे बिना श्रम के प्राप्त किया गया राज्य नीरस लगता है । प्रतः वह विरोधी राजा दुर्मति के साथ १-- ग्रह सेविउ पयत्ता-परिताहियएणं- -स० २२८१-६२ । २-- स० पू० २१७६-६० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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