SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ होती हैं। तृष्णा और कामनाओं का नियंत्रण यही कर सकता है । तात्पर्य यह है कि अपने योय-क्षेम के लायक भरण-पोषण की वस्तुओं को ग्रहण करना तथा परिश्रम कर जीवन यापन करना, अन्याय और अत्याचार द्वारा धनार्जन का त्याग करना अपरिग्रह है। "मुंडे -मंडे मतिभिन्ना" लोकोक्ति के अनुसार विश्व के मानवों में विचार भिन्नता का रहना स्वाभाविक है, यतः सबकी विचारशैली एक-सी नहीं होती। विचार विभिन्नता ही मतभेद और विद्वेष की जननी है । आपस में विद्वेष और घृणा विचार असहिष्णता के कारण ही उत्पन्न होते हैं । अतः विचार समन्वय शील का एक अंग है। संयम का अर्थ है इच्छाओं, वासनाओं और कषायों पर नियंत्रण रखना । संयम के दो भेद हैं--इन्द्रिय-संयम और प्राणि-संयम । इन्द्रियों को वश में करना इन्द्रिय-संयम है। पंचेन्द्रियों का निग्रह करना तथा कामना और लालसाओं को जीतना इन्द्रिय संयम में परिगणित है। ___ अन्य प्राणियों को किंचित् भी दुःख न देना प्राणिसंयम है । विश्व के समस्त प्राणियों की सुख सुविधा का पूरा-पूरा ख्याल करना भी इस संयम का अंग है । इस प्रकार शील इस चतुर्भुजी स्वस्तिक की दूसरी भुजा है ।। इसकी तीसरी भुजा तप है । इसका लक्ष्य है आत्मविकास और प्रात्मोत्थान करना । तप का अर्थ है असत् प्रवत्तियों और इच्छाओं का निरोध करना । कष्टसहिष्णु बनना तथा श्रद्धालु और आस्तिक होकर व्रतोपवास, सामायिक-एकान्त में बैठकर प्रात्मचिन्तन, स्वाध्याय और ध्यान आदि करना तप में शामिल हैं। इस स्वस्तिक की चौथी भुजा सद्भावना है । जीवन के बनावटी व्यवहारों का त्याग करके सच्चे हृदय से सभी के प्रति निर्मल भावना रखना, ईर्ष्या और राग-द्वेष है और पर में भी प्रात्मभावना उत्पन्न हो जाती है, तो वह किसी की बुराई नहीं सोचता। सद्भावना द्वारा समाज में शांति उत्पन्न होती है । इस प्रकार प्राकृत कथाकारों ने अपने कथा-स्थापत्य में इस चतुर्भुज का सन्निवेश कर कथानों की आत्मा पर प्रकाश डाला है । प्रायः सभी प्राकृत कथाओं में इन चारों तत्वों का अवश्य सन्निवेश है। २२ (6) उदात्तीकरण--प्राकृत कथाकारों ने अपने कथा-स्थापत्य में चरित्र-निर्माण पर विशेष बल दिया है। यद्यपि पात्र वर्गप्रतिनिधित्व ही करते हैं, तो भी चरित्रों में उदात्त तत्व सन्निविष्ट है। मनुष्य स्वभावतः संवेगों का पुंज है। संवेग में मनुष्य की प्रकृति सम अवस्था में न रहकर विषमावस्था में रहती है, इसीलिए मनुष्य का त्रिगुणमय अन्तःकरण संवेगावस्था में विकारमय रहता है । ये विकार आवश, आवेग और मनः प्रवृत्तियों के झटिति के रूप में व्यक्त होते है। अतः संवेग मनुष्य की उन स्थितियों से सम्बद्ध रहते हैं, जो स्थितियां साधारण ऐन्द्रिय सन्निकर्ष की ओर आश्रय को उत्प्रेरित करती हैं। उदात्तीकरण के द्वारा कलाकार इन निम्नाभिमुख संवेगों को किसी ऊंचे आर्दश की ओर संघावित करता है। संवेगों के उदात्तीकरण में वृत्तियों के संस्थापन, संहनन और पालम्बन विपर्यय से काम लिया जाता है। विस्थापन का अभिप्राय स्थान परिवर्तन से और संहनन का अभिप्राय जो बात अधिक में कही जाय उसे संक्षेप में कहने से है । प्राकृत कथाकारों ने चरित्रों को आदर्श और उदात्त बनाने की शिल्पविधि का प्रयोग किया है। प्रारंभ में पात्र त्रिगुणात्मक निम्नवृत्तियों-क्रोध, मान, माया, लोभादि से युक्त दिखलाई पड़ते हैं, पर लेखक आगे जाकर पात्रों के समक्ष ऐसे-ऐसे निमित्त कारण उपस्थित करता है, जिससे उनकी जीवन दिशा मड जाती है और चरित्रों का उदात्तीकरण होता चलता है । १० . -२२-एडु० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy