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________________ ११७ ताओ पुण पंच कहाम्रो । तं जहा। सयलकहा, खंडकहा, उल्लावकहा, परिहासकहा, तहावरा कहिय त्ति-संकिण्ण कहत्ति । अर्थात् सकलकथा, खंडकथा, उल्लापकथा, परिहासकथा और संकीर्णकथा। सकलकथा की परिभाषा काव्यानुशासन में निम्न प्रकार बतलायी गयी है। समस्तफलान्तति वृत्तवर्णना समरादित्यादिवत् सकलकथा । जिसके अन्त में समस्त फलों--- अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति हो जाय, ऐसी घटना का वर्णन सकलकथा में होता है। सकलकथा में वृत्तान्त एक होता है और उद्देश्य अनेक । सकलकथा का प्रयोग प्राकृत भाषा में ही हुआ है। इस कोटि की रचनाओं में कुलकादि चार से अधिक श्लोकों के अन्वय के बहल प्रयोग होने से दीर्घ समास भी पाये जाते हैं। सकलकथा में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों का वर्णन रहता है। शृंगार, वीर, करुण, प्रभृति सभी रसों का निरूपण किया जाता है। इस कथा का नायक कोई अत्यन्त पुण्यात्मा, सहनशील और आदर्श चरित्र वाला होता है। यह प्रतिनायक के साथ सद्व्यवहार करता है, प्रतिनायक को हर तरह से सुख पहुंचाना चाहता है। बाद्धपूर्वक प्रतिनायक का यह तनिक भी बरा नहीं करता है, पर प्रतिनायक अत्यन्त खल होता है, अतः वह सर्वदा ही नायक का बुरा करता है। जन्म-जन्मान्तर के संस्कार इतने प्रबल और सशक्त रहते हैं, जिससे व्यक्ति का व्यक्तित्व मूछित-सा रहता है __ संस्कृत के अलंकार ग्रन्थों में आख्यायिका, कथा, कथानिका, खंडकथा, परिकथा, सकलकथा, आख्यान, उपाख्यान, चित्रकथा और उपकथा ये दस भेद पाये जाते हैं। इनमें आख्यायिका और कथा मुख्य है। अमरकोष में “आख्यायिकोपलब्धार्था (१।६।५) और "प्रबन्धकल्पना कथा" (१।६।६) अर्थात् अनुभूत विषय का प्रतिपादन करने वाली आख्यायिका और वाक्य विस्तार की कल्पना करने वाली कथा होती है । कथा और आख्यायिका में निम्न अन्तर है :-- (१) कथा कविकल्पित होती है, आख्यायिका ऐतिहासिक इतिवृत्त पर अवलम्बित (२) कथा में वक्ता स्वयं नायक अथवा अन्य कोई रहता है, आख्यायिका में नायक स्वयं वक्ता होता है । आख्यायिका को हम एक प्रकार से आत्मकथा कह सकते हैं। (३) आख्यायिका का विभाग अध्यायों में किया जाता है, जिन्हें उच्छ्वास कहते है, तथा उसमें वक्त्र तथा अपवक्त्र छन्द के पद्यों का समावेश रहता है , पर कथा में नहीं। (४) कथा में कन्याहरण, संग्राम, विप्रलम्भ, सूर्योदय, चन्द्रोदयादि विषयों का वर्णन रहता है, पर आख्यायिका में नहीं। (५) कथा में लेखक किसी अभिप्राय से कुछ ऐसे शब्दों का (कैचवर्ड स) प्रयोग करता है, जो कथा और आख्यायिका में भेद स्थापित करते हैं। --संस्कृत सा० रूप० पृ० २३१ ।। कथानिका वह रचना है जिसकी घटना भयानक (रोमांचकारी) अथवा आनन्ददायक होती है। इसका मूल रस करुण है और अन्त में अद्भुत रस आ जाता है। आख्यान कुछ बड़ी कथा और उपाख्यान उससे भी छोटी कथा है। साहसिक कथाओं की गणना चित्रकथाओं में की जाती है। १--कुव० पृ० ४ अ० ७। - २--हे म० काव्या० अ० ५, सूत्र ९-१०, पृ० ४६५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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