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________________ ११३ कमी भी इन कथाओं में नहीं रहती हैं । पतनोन्मुख मानव समाज का चित्रण इस विचार से करना कि जगत का -- उसके गुण, अवगुण का ज्ञान प्रत्यक्ष रूप में उपलब्ध हो सके । पाप और वासनामय वातावरण से ऊपर उठकर अपने कर्त्तव्यपक्ष को समझना और उसपर अग्रसर होना ही इन कथाओं का मुख्य लक्ष्य है । निवेदिनी कथाओं का शिल्प संश्लिष्ट हैं, इसमें धर्मकथाओं के सभी रूप मिश्रित रहते हैं । इस प्रकार की कथाओं में एक प्रकार से चरित्र का रेचकीकरण होता है । मिश्र या संकीर्ण कथा की प्रशंसा सभी प्राकृत कथाकारों ने की है । अर्थक, कामकथा और धर्मकथा इन तीनों का सम्मिश्रण इस विधा में पाया जाता है । इसमें कथासूत्र, थीम, कथानक, पात्र और देशकाल या परिस्थिति आदि प्रमुख तत्व वर्त्तमान हैं | मनोरंजन और कुतूहल के साथ जन्म-जन्मान्तरों के कथानकों की जटिलता सुन्दर ढंग से वर्तमान हैं । संकीर्ण कथाओं के प्रधान विषय राजाओं या वीरों के शौर्य, प्रेम, न्याय, ज्ञान, दान, शील, वैराग्य, समुद्री यात्राओं के साहस, आकाश तथा अन्य अगम्य पर्वतीय प्रदेशों के प्राणियों के अस्तित्व, स्वर्ग-नरक के विस्तृत वर्णन, क्रोध-मान- माया-लोभमोह आदि के दुष्परिणाम एवं इन विकारों का मनोवैज्ञानिक चित्रण आदि है । दशकालिक में इस कथा का स्वरूप निम्न प्रकार बतलाया गया है: धम्मो अत्यो कामो उवइस्सइ जन्त सुत्तकव्वेसुं । लोगे वे समय सा उ कहा मीसिया णाम' । २११ जिस कथा में धर्म, अर्थ और काम इन तीनों पुरुषार्थों का निरूपण किया जाता है, वह मिश्रकथा कहलाती हैं । सा पुनः कथा “मिश्रा " मिश्रा नाम संकीर्ण पुरुषार्थाभिधानात् अर्थात् जिस कथा में किसी एक पुरुषार्थ की प्रमुखता नहीं हो और तीनों ही पुरुषार्थो का तथा सभी रसों और भावों का मिश्रित रूप पाया जाय वह कथाविधा मिश्रा या संकीर्णा है । आचार्य हरिभद्र ने समराइच्चकहा में लगभग उपर्युक्त अर्थवाली कथा को मिश्रकथा कहा है । पर उनकी परिभाषा' में एक नवीनता यह है कि उन्होंने इसे उदाहरण, हेतु और कारणों से समर्थित भी माना है । जन्म-जन्मान्तरों के कथाजाल समस्त रसों से युक्त होकर ही पाठकों का अनुरंजन कर सकते हैं । कथासूत्रों को असंभव नहीं होना चाहिए, बल्कि इनका संभव और सुलभ होना परमावश्यक है । अनुभूतियों की पूर्णतः अभिव्यक्ति की क्षमता संकीर्ण या मिश्र कथा में ही रहती है । जीवन की सभी संभावनाएं, रहस्य एवं सौन्दर्याधान के उपकरणों ने जिसे धर्मकथा कहा है, वह भी लक्षणों की दृष्टि से संकीर्ण या मिश्रकथा ही है । समराइच्चकहा को १ -- दश० गा० २६६, पृ० २२७ । २- दश० हारि०, पृ० २२८ । ३ - जा उण तिवग्गी वायाणसंबद्धा, कव्वकहा -- गन्थत्थवित्थरविरइया, सोइय-पेय, समयपसिद्धा, उदाहरण - - हेउ - कारणोववेया सा संकिष्ण कहत्ति वुप्पइ । - - याको० सम० पृ० ३ । तथा-- " पुणो सव्वलभवणा संपाइय-तिवग्गा संकिण्णात्ति" -- उद्यो० कुल०, पृ०४, अ० ८। ८--२२ एडु० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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