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________________ १०८ मिलन का वर्णन बड़े रोचक ढंग से होता है। में पाया जाता है । हरिभद्र की वृत्ति में प्रेम के बतलाए हैं* ―3 रोमान्स का प्रयोग भी कामकथाओं वृद्धिगत होने के निम्न पांच कारण सइदंसणाउ पेमं पेमाउ रई रईय विस्संभो । विस्संभाओ पणओ पंचविहं बड्ढए पेम्मं ॥ सदा दर्शन, प्रेम, रति, विश्वास और प्रणय इन पांच कारणों से प्रेम की वृद्धि होती है । पूर्ण सौन्दर्य वर्णन में शरीर के अंग-प्रत्यंग - केश, मुख, भाल, कान, भौं, आंख, चितवन, अधर, कपोल, वक्षस्थल, नाभि, जघन, नितम्ब आदि अंगों के सौन्दर्य को सांगोपांग रूप में उपस्थित किया जा सकता है । सौन्दर्य के साथ वस्त्र, सज्जा और अलंकारों का घनिष्ठ सम्बन्ध भी वर्णित रहता है । धर्मकथा का लक्षण हरिभद्र ने समराइच्चकहा में निम्न प्रकार बतलाया हैं : जा उण धम्मो वायाण गोयरा, खमा मद्दव - ज्जव मुत्ति-तव-संजम सच्च- सोया-किचनवंभचेरपहाणा, अणुव्वय - दिसि देसाप्यत्थदण्डविरई- सामाइय-पोसहोववासो-व भोग- परिभोगातिहिसं विभागकलिया, अणुकम्पा - कामनिज्जराइ - पयत्थ संपउत्ता सा धम्मकहति' । जिसमें क्षमा, मार्दव, आर्जव, मुक्ति, तप, संयम, सत्य, शौच, आकिंचन, ब्रहमचर्य, अणुव्रत, दिग्व्रत, देशव्रत, अनर्थदण्डव्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास, भोग- परिभोग, अतिथि संविभाग, अनुकम्पा तथा अकामनिर्जरा के साधनों का बहुलता से वर्णन हो, वह धर्मकथा हो । वस्तुतः धर्म वह है, जिसके आचरण करने से स्वर्ग आदि अभ्युदय तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है । इस धर्म से सम्बन्ध रखने वाली कथा धर्मकथा कहलाती है । सप्तऋद्धियों से शोभायमान गणधर देवों ने धर्मकथा के सात अंग बतलाये हैं । यह सात अंगों से भूषित और अलंकारों से सजी हुई नारी के समान अत्यन्त सुन्दर और सरस प्रतीत होती हैं । द्रव्य, क्षेत्र, तीर्थ, काल, भाव, महाफल और प्रकृत ये सात अंग कथा के हैं । जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छः द्रव्य हैं, उर्ध्व, मध्य और पाताल ये तीन लोक क्षेत्र हैं, जिनमें जिनेन्द्रदेव का चरित्र ही तीर्थ है, भूत, भविष्यत् और वर्तमान ये तीन काल हैं, क्षायोपशमिक अथवा क्षायिक ये दो भाव हैं, तत्वज्ञान का होना फल कहलाता है और वर्णनीय कथावस्तु को प्रकृत कहते हैं । इन सात अंगों का वर्णन जिस कथा में पाया जाय, वही धर्मकथा' है । १- दश०हारि०, पृ० २१९ । "यं० कंचन उज्ज्वलवेणं पुरुषं दृष्ट्वा स्त्री कामयते ।। दश०हारि०, पृ० २१८ । २ -- सम०, पृ० ३ । ३ - - यतोऽभ्युदय निःश्रेयसार्थसंसिद्धि रंजसा । सद्धर्मस्तन्निबद्धा या सा सद्धर्म कथा स्मृता ॥ प्राहुर्धर्मकथांगानि सप्त सप्तधिभूषणाः । भूषिता कथाssहा र्नटीव रसिका भवेत् ॥ द्रव्यं क्षेत्रं तथा तीर्थ कालो भावः फलं महत् । प्रकृतं चेत्यमून्याहुः सप्तांगानि कथामुखे ॥ द्रव्यं जीवादि षोढा स्यात्क्षत्रं त्रिभुवनस्थितिः । जिनेन्द्रचरितं तीर्थं कालस्त्रधा प्रकीर्त्तितः ॥ प्रकृतं स्यात् कथावस्तु फलं तत्त्वावबोधनम् । भावः क्षयोपशमजस्तस्य स्यात्क्षायिकोऽथवा ॥ Jain Education International -- जिनसेन महा० १ पर्व इलो० १२०--१२० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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