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________________ मूर्छा दूर होने पर घोरशिव ने अपना सारा वृत्तान्त कह दिया। राजा ने रो भमा प्रदान की। समय पाकर राजा नरसिंह को पुत्रोत्पत्ति हुई। पुत्र का नाम नरविक्रम रखा गया । नरविक्रम बाल्यकाल से ही बड़ा होनहार, तेजस्वी और वीर था। उसने बयस्क होकर मल्ल विद्या, युद्ध विद्या, शस्त्र विद्या प्रादि में पूर्ण पाण्डित्य प्राप्त किया। हर्षपुर के पराक्रमशाली राजा देवसेन की रूप-यौवनवती शीलवती नाम की कन्या थी। राजा की सभा में कालमेघ नामक एक मल्ल था, जिसने समस्त मल्लों को पराजित कर सम्मान प्राप्त किया था। देवसेन ने घोषणा की कि जो कालमेघ को मल्लयुद्ध में पराजित करेगा, शीलवती का विवाह उसी के साथ होगा। नरविक्रम ने कालमेघ को मल्लयुद्ध में पछाड़ दिया जिसमें शीलवती का विवाह उसके साथ हो गया। कालान्तर में नरविक्रम के दो पुत्र हुए। नगरी को त्रस्त करने के कारण कुमार ने मदोन्मत्त जयकुंजर गज का वध किया, जिससे नरसिंह राजा कुमार से बहुत असन्तुष्ट हुआ। यतः उसका जयकुंजर के ऊपर बहुत स्नेह था। राजा ने कुमार को देश निर्वासन का दण्ड दिया। नरविक्रम जयवर्द्धन नगर में पहुंचा। यहां कीर्तिवर्मा राज्य करता था, पुत्रहीन ही इसको मृत्यु हो गई थी, अतः राजा के निर्वाचन हेतु पंचाधिवासित किये गये थे, इन देवी वस्तनों ने नरविक्रम का राज्याभिषेक किया और जयवर्धन नगर का राज्यभार उसने संभाला । शीलवती अपने दोनों पुत्रों सहित जयवर्धन में प्राकर नरविक्रम से मिली। समन्तभद्र केवली के उपदेश को सुनकर नरसिंह विरक्त हो गया और जयन्ती नगरी का राज्य भी नरविक्रम को सौंप दिया। नरविक्रम ने दोनों ही जनपदों का राज्यभार बड़ी कुशलता के साथ सम्पन्न किया। अन्त में प्रवजित हो तपश्चरण किया और माहेन्द्रकल्प में वेव हुआ। यह एक सरस साहसिक कथा है, इसमें नरसिंह और नरविक्रम दोनों के साहसपूर्ण कार्यों का वर्णन किया गया है। घटनाएं सनसनीपूर्ण रोमांचकारी ढंग से घटित हुई हैं। कौतूहल तत्व को आद्यन्त प्रधानता है। चमत्कारपूर्ण शैली में घटनाओं का क्रम इतना सुन्दर रखा गया है जिससे पाठक ऊबता नहीं । नायक नरविक्रम के चरित्र का विश्लेषण पर्याप्त सूक्ष्मतापूर्वक किया गया है। उसके चरित्र को चरम परिणति वैराग्य में ही हुई है। नरविक्रम प्रेमी होने की अपेक्षा वीर और साहसी है। उसके स्वभाव में यह वैयक्तिक विशेषता है। प्रात्म-सम्मान के लिए अपना देश और राज्य भी छोड़कर चला जाता है । पत्नी के प्रांसू और माता की ममता भी उसे रोकने में असमर्थ है। उसमें आत्मविश्वास की पराकाष्ठा है, यही कारण है कि सफलताएं उसकी जीवन परिधि के चारों ओर चक्कर लगाती रहती हैं। । यद्यपि कथा में मन्त्र-तन्त्र के चमत्कार और वैवी शक्तियां पूर्ववर्ती कथाओं के समान ही विद्यमान है, तो भी कथातत्त्व का विकास सुन्दर हुआ है। कथा में रोचकता और मनोरंजकता के लिए प्रतिमानुषिक, अतिभौतिक एवं अतिप्राकृतिक शक्तियों से पूरा कार्य लिया गया है। विशेष परिपार्श्व और वातावरण में, विशेष स्थितियों और परिस्थितियों में प्राकस्मिक सयोगों को योजना सुन्दर की है। यह सत्य है कि मनोविश्लेषण कीर से इस कथा में निराशा ही हाथ लगेगी, किन्तु उद्देश्य पर विचार करने से स्पष्ट हो जाता है कि जिस उद्देश्य से कथा लिखी गयी है उस उद्देश्य में सफल है। कुतूहल और जिज्ञासा के सूत्रों में सभी घटनाओं को पिरोया गया है। भावों के उतार-चढ़ाव एवं मानसिक द्वन्तु की स्थिति नरसिंह और नरविक्रम दोनों के चरित्र में है। श्मशाम भूमि में नरसिंह. बहुत बड़े मानसिक द्वन्द्र के अनन्तर ही घोरशिष से युद्ध करने को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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