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________________ जिनदत्त का जीव पूर्वभव में अवन्ती देश के दर्शनपुर नगर में शिवधन श्रौर यशोमति के यहां शिवदेव नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। शिवदेव जब आठ वर्ष का था, तभी farera की मृत्यु हो गई और शिवदेव ने उज्जयिनी के एक वणिक के यहां नौकरी कर ली । एक दिन उसी वन में धर्मध्यान में स्थित एक मुनिराज मिले। उसने उनकी परिचर्या की और माघ पूर्णिमा के दिन उन्हें श्राहारदान दिया, जिस पुण्य के से शिवदेव वसन्तपुर में जीवदेव या जिनदत्त सेठ और जीवयशा सेठानी के यहां जिनदत्त नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । वयस्क होने पर जिनदत्त का विवाह चम्पानगरी के विमल सेठ की पुत्री विमलमति के साथ हुआ । प्रभाव जिनदत्त ने एक दिन मन बहलाव के लिए जुआ खेला और जुए में अपार धन हर गया। धन की मांग करने पर जब घर से धन नहीं मिला, तो वह उदास हुआ। जिनदास और विमलमति को जब यह समाचार मिला तो उन्होंने धन दे दिया और जिनदास ने पुत्र को समझाते हुए कहा वत्स धन का व्यय सत्कार्य में होना चाहिए, द्यूतव्यसन निन्द्य है । धनहानि के कारण जिनदत्त उदास रहने लगा। उसकी अर्धांगिनी विमलमति को यह खटका और मन बहलाव के हेतु वह जिनदत्त को चम्पापुर ले आई। यहां ससुराल म आकर भी जिनदत्त प्रसन्न न रह सका । अतः वेष परावत्तनी गुटिका द्वारा वेष बदल कर वह दधिपुर चला गया। यहां एक दरिद्र सार्थवाह के यहां कार्य करने लगा और अपनी सेवा से उसे प्रसन्न कर उसके साथ सिंहल गया। यहां पृथ्वीशेखर राजा की कन्या श्रीमती की व्याधि दूर की। राजा ने प्रसन्न होकर इस कन्या का विवाह जिनदत्त के साथ कर दिया। जिनदत्त ने यहां बहुत सा धन भी श्रजित किया। लौटते समय मार्ग में दरिद्र सार्थवाह ने धोखे से जिनदत्त को समुद्र में गिरा दिया। वह समुद्र में लकड़ी के सहारे बहता चला जा रहा था कि रथनूपुर चक्रवाल नगर के विद्याधर राजा अशोकश्री की कन्या अंगारवती के लिए वर का अन्वेषण करते हुए एक विद्याधर आया और उसने जिनदत्त को समुद्र से निकाला तथा अंगारवती के साथ उसका विवाह कर दिया । एक दिन जिनदत्त अंगारवती के साथ विमान में सवार हो भ्रमण के लिए निकला और चम्पापुरी में आया, जहां विमलमति और श्रीमती साध्वी के समक्ष व्रताभ्यास कर रही थीं। वह उद्यान में उतर गया और रात्रि में अंगारवती को वहीं छोड़कर चला गया। अंगारवती भी उन दोनों के साथ व्रताभ्यास करने लगी । एक दिन चम्पानगरी के राजा का हाथी बिगड़ गया। राजा ने घोषणा करा दी कि जो व्यक्ति हाथी को वश करेगा, उसे आधा राज्य और अपनी कन्या दूंगा। जिनदत्त बौने का रूप धारण कर वहां श्राया और उसने हाथी को वश कर लिया। राजा को उसका कुरूप देखकर चिन्ता हुई कि इसके साथ इस सुन्दरी कन्या का विवाह कैसे किया जाय ? जिनदत्त ने अपना वास्तविक रूप प्रकट किया। राजा ने अपनी प्रतिज्ञानुसार उसे प्राधा राज्य दे दिया और रति सुन्दरी का विवाह भी उसके साथ कर दिया । कुछ समय के उपरान्त जिनदत्त अपनी चारों पत्नियों के साथ वसन्तपुर में अपने पिता के यहां आया। माता-पिता अपने समृद्धशाली पुत्र से मिलकर बहुत प्रसन्न हुए । कुछ समय के पश्चात् शुभंकर आचार्य के समक्ष अपनी पूर्वभवावली सुनकर उसे विरक्ति हुई और उसने जिनदीक्षा धारण कर ली । श्रायु पूर्ण कर वह स्वर्ग में देव हुआ । यह कथा गद्य-पद्य दोनों में लिखी गई है । ग्रन्थकार ने स्वयं कहा है A के सिंचि पियं गज्जं पज्जं के सिंचि बल्लहं होइ । विरएमि गज्ज-पज्जं, तम्हा मज्झत्थवित्तीए ॥ ८ ॥ पृ० १ अर्थात् -- किसी को गद्य प्रिय है, किसी को पद्य प्रिय है, अतः मैं गद्य-पद्य मिश्रित मध्यवृत्ति में इस ग्रन्थ की रचना करता हूं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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