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________________ ७६ सुनकर वह विरक्त हो जाता है और प्रव्रज्ग धारण कर घोर तपश्चरण करता है । वह श्रायुक्षम कर सातवें स्वर्ग में हेमांगद देव होता है । कमलश्री और भविष्यानुरूपा भी मरण कर देव गति प्राप्त करती हैं । कथा में श्रागे को भवावली का भी वर्णन मिलता है । अवशेष नौ कथाएं भी ज्ञानपंचमी व्रत के माहात्म्य के दृष्टान्त के रूप में लिखी गई हैं। सभी कथात्रों का प्रारम्भ, अन्त श्रौर शैली प्रायः एक-सी है जिससे कथाओं की सरसता क्षीण हो गयी है । एक बात अवश्य है कि लेखक न बीच-बीच में सूक्तियों, लोकोक्तियों एवं मर्मस्पर्शी गाथात्रों की योजना कर कथाप्रवाह को पूर्णतया गतिशील बनाया है । कथानकों की योजना में भी तर्कपूर्ण बुद्धि का उपयोग किया है । सत् और असत् प्रवृत्तियों वाले व्यक्तियों के चारित्रिक द्वन्द्वों को बड़े सुन्दर रूप में उपस्थित किया है। भविष्यदत्त और बन्धुदत्त कमलश्री और सरूपा दो विरोधी प्रवृत्तियों के पुरुष एवं स्त्रियों के जोड़े हैं । कथाकार ने सरूपा में सपत्नी सुलभ ईर्ष्या का और कमलश्री में दया का सुन्दर चित्रांकन किया है । प्रथम कथा में नारी की भावनाओं, चेष्टाओं एवं विचारों का अच्छा निरूपण हुश्रा है । कथातत्व की दृष्टि से भी यह कथा सुन्दर है । दूसरी नन्दकथा में नन्द का शील उत्कर्ष पाठकों को मुग्ध किये बिना नहीं रहेगा। तीसरी भद्राकथा में कथा के तत्त्व तो पाये जाते हैं, पर चरित्रों का विकास नहीं हो पाया है । इसमें कौतूहल और मनोरंजन दोनों तत्त्वों का समावेश हैं । वीरकहा और कमला कहा में कथानक रूढ़ियां प्रयुक्त हैं तथा ate द्वन्द्वों का निरूपण भी किया गया है। 'गुणाणुरागकहा' एक आदर्श कथा है । नैतिक और आध्यात्मिक गुणों के प्रति आकृष्ट होना मानवता है। जिस व्यक्ति में उदारता दया, दाक्षिण्य श्रादि गुणों की कमी है, वह व्यक्ति मानव कोटि में नहीं आता है । विमल और धरण कहानों में कथा का प्रवाह बहुत तीव्र है । लघु कथाएं होने पर भी इनमें कथारस की न्यूनता नहीं है । इस कथाकृति की सभी कथाओं में अलौकिक सत्ताओं एवं शक्तियों का महत्व प्रदर्शित किया गया है। इस कारण कथात्मक रोचकता के रहने पर भी मानवसिद्ध सहज सुलभता नहीं आ पायी है। इन समस्त कथाओं की अधिकांश घटनाएं पुराणों के पृष्ठों से ली गयी हैं | चरित्र, वार्तालाप और उद्देश्यों की गठन कथाकार ने अपने ढंग से की है । भविसयत्तकहा इन सभी कथाओं में सुन्दर और मौलिक है। मानव के छल-कपट और रागद्वेषों के वितान के साथ इसमें मनुष्यता और उसकी संस्थानों का विकास सुन्दर ढंग से चित्रित किया गया है । इन कथाओंों में मानव जीवन के मध्याह्न की स्पष्टता चाहे न मिले, पर उसके भोर की धुंधलाहट अवश्य मिलेगी । काव्यात्मक कल्पनाएं भी इस कृति में प्रचुर परिणाम में विद्यमान हैं । सिरि विजयचन्द केवलिचरियं इस कथा के रचयिता श्री चन्द्रप्रभ महत्तर हैं । ये अभयदेव सूरि के शिष्य थे । इसकी रचना वि० सं० ११२७ में हुई हैं। प्रशस्ति में बताया गया हैसिरिनिव्वयवं समहा- -- धयस्स सिरि अभयदेवसूरिस्स । सीसेण तस्स रइयं -- चंदष्पहमहयरेणे यं ॥१४६॥ देयावढवर : यरे रिसहाजिणंदस्स मंदिरे रइयं । नियवीरदेवसीसस्स साहुणो तस्स वयणेणं मुणिकमरुद्द ककुए काले सिरिविक्कमस्सवट्टते । रइयं फुडक्खरत्थं चंदप्पहमहयरेणे य ।। १५१॥ ।। १५२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002143
Book TitleHaribhadra ke Prakrit Katha Sahitya ka Aalochanatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1965
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size22 MB
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