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________________ ( ५० ) परिणत होना और कदाचित् न होना यह व्यवस्था नहीं हो सकती अर्थात् निरपेक्ष होने से प्रधान में प्रवृत्ति अथच निवृत्ति ये दोनों बातें सम्भव नहीं हो सकती । परन्तु ईश्वर में यह दोष नहीं क्योंकि वह सर्वज्ञ है, सर्व शक्तिमान है और उसकी अद्भुत माया है इससे उसमें प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों ही सम्भव हैं तात्पर्य कि उसमें प्रवृत्ति और निवृत्ति ये दोनों ही विरोधी धर्म रह सकते हैं इत्यादि । हमारे ख्याल में तो शंकर स्वामी ने एक प्रकार से अनेकान्तवाद का अवलम्बन कर लिया ! उनके कथन का स्पष्ट तात्पर्य यह है कि सांख्य दर्शन में केवल प्रधान को जो जगत् का कारण माना है वह उन्हें अभिमत नहीं । उनका कहना है कि कारण में प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों ही होने चाहिये परन्तु प्रधान जड़ है इसलिये उसमें प्रवृत्ति और निवृत्ति ये दोनों बातें सम्भव नहीं हो सकतीं । यदि उसमें प्रवृत्ति-महदादि आकार से परिणत होना मानें तो निवृत्ति-साम्यरूप से अवस्थित रहना-का उसमें सम्भव नहीं और यदि निवृत्ति को स्वीकार करें तो फिर प्रवृत्ति की संभावना नहीं होसकती क्योंकि प्रवृत्ति और निवृत्ति ये दोनों आपस में विरोधी हैं इनका एक स्थान में रहना बन नहीं सकता। जगत्-कारणरूप प्रधान में इन दो में से एक ही रहेगा इसलिये केवल प्रधान को जगत् का कारण नहीं मान सकते। परन्तु ईश्वर के लिये यह बात नहीं उस में तो प्रवृत्ति और निवृत्ति ये दोनों ही रह सकते हैं क्योंकि वह सर्वज्ञ है, सर्वशक्ति वाला है और अपने में अद्भुत माया रखता है इस वास्ते उसमें उक्त विरोधी धर्म भी भली भांति रह सकते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002141
Book TitleDarshan aur Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Sharma
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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