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________________ ( ३१ ) सुवर्णरूप धर्मी द्रव्य की, कटक कुण्डलादि धर्मों से अतिरिक्त स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । एकान्तवादी बौद्ध की इस विलक्षण शंका का समुचित उत्तर देने के निमित्त अनेकान्तवाद का अनुसरण करते हुए भाष्यकार कहते हैं "अयमदोषः कस्मात् एकान्तानभ्युपगमात्" अर्थात् हमारे लिये उक्त दोष को अवकाश नहीं है । यदि हम चिति शक्ति की तरह द्रव्य में एकान्त नित्यता को स्वीकार करें, तभी हम पर उक्त आक्षेप हो सकता है। परन्तु हमारा मन्तव्य ऐसा नहीं है। हम द्रव्य को एकान्ततया नित्य अथवा अनित्य नहीं मानते किन्तु वह कथंचित् किसी अपेक्षा से नित्य अतएव अनित्य भी है। तथाहि-यह संसार-तदन्तर्गत घट पटादि पथार्थ जात-परिदृश्यमान रूप से विनष्ट होता है क्योंकि वह नित्य नहीं और विनष्ट हुआ भी रूपान्तर से स्थित रहता है। क्योंकि इसका आत्यन्तिक विनाश नहीं होता । उक्त दोनों बातों की उपपत्ति टीकाकार ने इस प्रकार से की है । मुद्गरादि के १-नित्यत्व प्रतिषेधात प्रमाणेन । यदि घटो व्यक्तेर्नाऽपेयात् कपाल शर्कराचूर्णादिश्ववस्थास्वपि व्यक्तो घट इति पूर्व बदुपलब्ध्यर्थक्रिये फुर्यात् तस्मादनित्यं त्रैलोक्यम् । अस्तु ती नित्यमेवोपलव्ध्यर्थक्रियारहितत्वेन गगनारविन्दबदति तुच्छत्वादित्यत माह-"अपेतमप्यस्ति" इति । नात्यन्त तुच्छता येनै कान्ततोऽनित्यस्यादित्यर्थः कस्मात -विनाश प्रतिषेधात प्रमाणेन । तथाहि यत् तुच्छ न तत्कदाचिदप्थुलब्ध्यर्थ क्रिये करोति यथा गगनार विन्दम् । करोति चैतत् त्रैलोक्यम् कदाचिदप्युपलब्ध्यर्थ क्रियेx इति । (बाचस्पति मिश्रः) -- x नात्यन्त तुच्छ मिति शेषः (टिप्पणी) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002141
Book TitleDarshan aur Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Sharma
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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