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________________ ( १५४ ) किये गये स्याद्वाद के स्वरूप से जैन दर्शन का स्याद्वाद कुछ भिन्न प्रकार का है । इसलिये उनका प्रतिवाद या खंडन अनेकान्तवाद के वास्तविक स्वरूप के अनुरूप नहीं कहा जा सकता । जब कि - अनेकान्तवाद का, जो स्वरूप कल्पना करके प्रतिपक्षी विद्वानों ने 'उसका प्रतिवाद किया है वह स्वरूप जैन दर्शन को अभिमत ही नहीं तब उक्त प्रतिवाद को किस प्रकार से न्यायोचित कहा जाय ? जो बात वादी को स्वीकृत ही नहीं उसको जवरदस्ती उसके गले मढ़कर पीछे से उसकी अवहेलना करना यह कहाँ का न्याय है ? बस यही दशा अनेकान्तवाद के प्रतिपक्षी विद्वानों की है। हमारा यह कथन तो बड़ा हो साहसयुक्त वा धृष्टतापूर्ण समझा अथवा माना जायगा कि, जैन दर्शन के प्रतिपक्षी विद्वानों में से आज तक किसी ने अनेकान्तवाद के स्वरूप को समझा ही नहीं है । परन्तु वस्तु स्थिति कुछ ऐसी विलक्षण और जबरदस्त है कि एक बिलकुल निष्पक्ष और तटस्थ विचारक को भी उसके सामने बलात् नत मस्तक होना पड़ता है । जैन दर्शन के प्रतिद्वन्दी विद्वानों ने भले ही अनेकान्तवाद का होवाथी मत्तप्रलाप जेवं स्वीकारवा योग्यनथी - एवं खोटं खंड्नकरवामा युं छे । परन्तु हरिभद्रसूरि नामना जैन विचारके पक्षपात रहित बुद्धि थी ब्राह्मणो ना दर्शन शास्त्र ना भिन्न २ प्रमेयो जेवी रीते उकेल्यांबे तेवाज दृष्टि विन्दु थी जैन तत्व ज्ञान ना मर्मो पण समजवानी जरूर छे । [ पृष्ठ २१६ - उत्तरार्द्ध ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002141
Book TitleDarshan aur Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Sharma
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size8 MB
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