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________________ जैन धर्म-दर्शन का साहित्य ५१ का आहार- पानी ग्रहण करना आदि। तीसरे, चौथे एवं पांचवें उद्देश में भी लघुमास से सम्बद्ध क्रियाओं का उल्लेख है । छटे उद्देश में मैथुन सम्बन्धी निम्नोक्त क्रियाओं के लिए गुरुचातुमासिक प्रायश्चित्त का विधान किया गया है: स्त्री अथवा पुरुष से मैथुन सेवन के लिए प्रार्थना करना, मैथुन की कामना से हस्तकर्म करना, स्त्री की योनि में लकड़ी आदि डालना, अति छिद्र आदि में अंगादान प्रविष्टकर शुक्रपुद्गल निकालना, वस्त्र दूर कर नग्न होना, निर्लज्ज वचन बोलना, प्रेम-पत्र लिखना - लिखवाना, गुदा अथवा योनि में लिंग डालना - डलवाना आदि । सातवें, आठवें, नवें, दसवें एवं ग्यारहवें उद्देश में भी मैथुनविषयक एवं अन्य प्रकार की दोषपूर्ण क्रियाओं के लिए गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त का विधान है। बारहवें से उन्नीसवें उद्देश तक लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त से सम्बद्ध क्रियाओं का प्रतिपादन किया गया है । ये क्रियाएं इस प्रकार हैं : प्रत्याख्यान का बार-बार भंग करना, गृहस्थ के वस्त्र, भोजन आदि का उपयोग करना, दर्शनीय वस्तुओं को देखने के लिए उत्कण्ठित रहना, प्रथम प्रहर में ग्रहण किया हुआ आहार चतुर्थ प्रहर तक रखना, दो कोस से आगे जाकर आहार लाना, अपने उपकरण अभ्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ से उठवाना, हस्तरेखा आदि देखकर फलाफल बताना, मन्त्र-तन्त्र सिखाना, विरेचन लेना अथवा औषधि का सेवन करना, शिथिलाचारी को वन्दना - नमस्कार करना, पात्रादि मोल लेना, मोल लिवाना, मोल लेकर देनेवाले से ग्रहण करना, वाटिका आदि में टट्टी पेशाब डालना, गृहस्थ आदि को आहार-पानी देना, दम्पति के शयनागार में प्रवेश करना, जुगुप्सित कुलों से आहारादि ग्रहण करना, गीत गाना, वाद्ययन्त्र बजाना, नृत्य करना, अकारण नाव में बैठना, स्वामी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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