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________________ ४२६ जन धर्म-दर्शन सुख-दुख हेतु मुख्य है । वह हेतु इस प्रकार है : सुख-दुःख का कोई कारण अवश्य होना चाहिए, क्योंकि वह कार्य है, जैसे अंकुररूप कार्य का कारण बीज है । सुख-दुःखरूप कार्य का जो कारण है वही कर्म है ।" यहाँ यह कहा जा सकता है कि यदि सुख-दुःख का कोई दृष्ट कारण सिद्ध हो तो कर्मरूप अदृष्ट कारण का अस्तित्व मानने की क्या आवश्यकता है ? चन्दन आदि पदार्थ सुख के तथा सर्पविष आदि दुःख के जनक सिद्ध हैं । इन दृष्ट कारणों को छोड़कर अदृष्ट कर्म की सत्ता स्वीकार करने की कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती । इसका समाधान करते हुए कहा गया है कि दृष्ट कारणों में दोष दृष्टिगोचर होता है । अतः अदृष्ट कारण मानना अनिवार्य है । सुख-दुःख के दृष्ट कारणों के समान रूप से विद्यमान रहने पर भी उनके कार्यों में जो तारतम्य दिखाई देता है वह अकारण नहीं हो सकता । उस तारतम्य का जो अदृष्ट कारण है वही कर्म है । कर्म-साधक दूसरा हेतु इस प्रकार है: आद्य बाल- शरीर देहान्तरपूर्वक है, क्योंकि वह इन्द्रियादि से युक्त है, जैसे युवदेह बाल देहपूर्वक है । आद्य बालशरीर जिस देहपूर्वक है वही कर्म ( कार्मण शरीर ) है | 3 कर्म का अस्तित्व सिद्ध करने वाला तीसरा हेतु इस प्रकार है : दानादिरूप क्रिया का कोई फल अवश्य होना चाहिए, क्योंकि वह सचेतन व्यक्तिकृत क्रिया है, जैसे कृषि । दानादि १. विशेषावश्यक भाष्य, १६१०-१६१२. २. वही, १६१२ - १६१३. ३. वही, १६१४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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