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________________ सापेक्षवाद ४०६ में जो भेद है वह शब्दनय के कारण है। कारक-भद से अर्थभेद हो जाता है-जैसे मोहन को, मोहन के लिए, मोहन से आदि शब्दों के अर्थ में भेद है। इसी प्रकार उपसर्ग के कारण भी एक ही धातु के भिन्न-भिन्न अर्थ हो जाते हैं। संस्थान, प्रस्थान, उपस्थान आदि के अर्थ में जो विभिन्नता है उसका यही कारण है। 'सम्' उपसर्ग लगाने से संस्थान का अर्थ आकार हो गया, 'प्र' उपसर्ग लगाने से प्रस्थान का अर्थ गमन हो गया और 'उप' उपसर्ग लगाने से उपस्थान का अर्थ उपस्थिति हो गया। इस तरह विविध संयोगों के आधार पर विविध शब्दों के अर्थमद की जो अनेक परम्पराएं प्रचलित हैं वे सभी शब्दनय के अन्तर्गत आ जाती हैं। शब्दशास्त्र का जितना विकास हुआ है उसके मूल में यही नय रहा है । समभिरूढ-शब्दनय काल, कारक, लिंग आदि के भेद से ही अर्थ में भेद मानता है। एक लिंग वाले पर्यायवाची शब्दों में किसी प्रकार का भेद नहीं मानता। शब्दभेद के आधार पर अर्थभेद करने वाली बुद्धि जब कुछ और आगे बढ़ जाती है और व्युत्पत्ति-भेद के आधार पर पर्यायवाची शब्दों में अर्थभद मानने के लिए तैयार हो जाती है तब समभिरुढ नय की प्रवृत्ति होती है। यह नय कहता है कि केवल काल आदि के भेद से अर्थभेद मानना ही काफी नहीं है अपितु व्युत्पत्तिमूलक शब्दभेद से भी अर्थभेद मानना चाहिए। प्रत्येक शब्द अपनीअपनी व्युत्पत्ति के अनुसार भिन्न-भिन्न अर्थ का प्रतिपादन करता हैं। उदाहरण के लिए हम इन्द्र, शक्र और पुरन्दर इन तीन शब्दों को लें। शब्दनय की दृष्टि से देखने पर इन तीनों शब्दों का एक ही अर्थ होता है। यद्यपि ये तीनों शब्द भिन्न-भिन्न व्युत्पत्ति के आधार पर बनते हैं किन्तु इनके वाच्य अर्थ में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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