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________________ ३६२ जैन धर्म-दर्शन प्रकार इन चारों पक्षों को भी अव्याकृत कहा गया है । उदाहरण के लिए निम्न प्रश्न अव्याकृत हैं : १. होति तथागतो परंमरणाति ? न होति तथागतो परंमरणाति ? होति च न होति च तथागतो परंमरणाति ? नेव होति न न होति तथागतो परंमरणाति ? १ २. सयंकतं दुक्खवंति ? परंकतं दुक्खवंति ? सयंकतं परंकतं च दुक्खवंति ? असयंकार अपरंकारं दुक्खति ? बुद्ध की तरह संजयवेलट्ठिपुत्त भी इस प्रकार के प्रश्नों का न 'हाँ' में उत्तर देता था, न 'ना' में । उसका किसी भी विषय में कुछ भी निश्चय न था । बुद्ध तो कम-से-कम इतना कह देते थे कि ये प्रश्न अव्याकृत हैं । संजय उनसे भी एक कदम आगे बढा हुआ था । वहन 'हाँ' कहता, न 'ना' कहता, न अव्याकृत. कहता, न व्याकृत कहता। किसी भी प्रकार का विशेषण देने में वह भय खाता था। दूसरे शब्दों में, वह संशयवादी था । किसी भी विषय में अपना निश्चित मत प्रकट न करता था । पाश्चात्य दर्शनशास्त्र में ह्यम का जो स्थान है, प्रायः वही स्थान भारतीय दर्शनशास्त्र में संजयवेलदिपुत्त का है। ह्यूम भी यही मानता था कि हमारा ज्ञान निश्चित नहीं है, इसलिए हम अपने ज्ञान से किसी अन्तिम तत्त्व का निर्णय नहीं कर सकते । सीमित अवस्था में रहते हुए सीमा से बाहर के तत्त्व का निर्णय १. संयुत्तनिकाय, ४४.१. २. वही, १२.१७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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