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________________ ३५६ नैन धर्म-दर्शन बन सकता, क्योंकि दो एकान्तवाद कभी एकरूप नहीं हो सकते । वे हमेशा एक-दूसरे के विरोधी होते हैं। स्याद्वाद या अनेकान्तवाद एक अखण्ड दृष्टि है, जिसमें वस्तु के सभी धर्म निर्विरोध रूप से प्रतिभासित होते हैं। आगमों में स्याद्वाद: यह विवेचन पढ़ लेने के बाद इसमें तो तनिक भी सन्देह नहीं रहता कि स्याद्वाद का बीज जैनागमों में मौजूद है। जगहजगह 'सिय सासया', 'सिय असासया'-स्यात् शाश्वत, स्यात् अशाश्वत आदि का प्रयोग देखने को मिलता है। इससे यह सिद्ध है कि आगमों में 'स्यात्' शब्द प्रयुक्त हुआ है। यहाँ पर एक प्रश्न है कि क्या आगमों में 'स्याद्वाद' इस पूरे पद का प्रयोग हुआ है ? सूत्रकृतांग की एक गाथा में से 'स्याद्वाद' ऐसा पद निकालने का प्रयत्न किया गया है।' गाथा इस प्रकार है : नो छायए नो वि य लूसएज्जा माणं न सेवेज्ज पगासणं च । न यावि पन्ने परिहास कुज्जा न यासियावाय वियागरेज्जा ॥ १.१४. १६. इसका जो 'न यासियावाय' अंश है उसके लिए टीकाकार ने 'न चाशादि' ऐसा संस्कृत रूप दिया है। जो इस गाथा में से 'स्याद्वाद' पद निकालना चाहते हैं उनके मतानुसार 'न चास्याद्वाद' ऐसा रूप होना चाहिए। आचार्य हेमचन्द्र के नियमों के अनुसार 'आशिष्' शब्द का प्राकृत रूप 'आसी' होता है। हेमचन्द्र ने 'आसीया' ऐसा एक दूसरा रूप भी दिया है ।। १. ओरिएण्टल कोन्फरेंस-नवम अधिवेशन की कार्यवाही ( डा० ए. एन० उपाध्ये का मत ), पृ० ६७१. २. प्राकृत-व्याकरण, ८. २. १७४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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