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________________ ३५० जैन धर्म-दर्शन जीव सान्त भी है और अनन्त भी है। द्रव्य की दृष्टि से जीव सान्त है। क्षेत्र की अपेक्षा से जीव असंख्यात प्रदेश वाला है, अत. वह सान्त है। काल की दृष्टि से जीव हमेशा है, इसलिए वह अनन्त है । भाव की अपेक्षा से जीव के अनन्त ज्ञानपर्याय हैं, अनन्त दर्शनपर्याय हैं, अनन्त चारित्रपर्याय हैं, अनन्त अगुरुलघुपर्याय हैं । इसलिए वह अनन्त है।' द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चार दष्टियों से जीव की सान्तता-अनन्तता का विचार किया गया है। द्रव्य और क्षेत्र की दृष्टि से जीव सीमित है, अतः सान्त है। काल और भाव की दृष्टि से जीव असीमित है, अतः अनन्त है। तात्पर्य यह है कि जीव कथंचित् सान्त है, कथंचित् अनन्त है । - द्रव्य का सबसे छोटा अंश, जिसका पुन: विभाग न हो सके, परमाणु है। परमाणु के चार प्रकार बताये गये हैं-द्रव्यपरमाणु, क्षेत्रपरमाणु, कालपरमाणु और भावपरमाणु । वर्णादिपर्याय की विवक्षा के बिना जो सूक्ष्मतम द्रव्य है वह द्रव्यपरमाणु है। इसे पुद्गलपरमाणु भी कहते हैं। आकाश १. जे वि य खंदया ! जीवे सस्ते जीवे अणंते जीवे, तस्स वि य गं एयमझे-एवं खलु जाव दव्यो णं एगे जीवे सअंते, खेत्तओ णं जीवे असंखेज्जपए सिए असंखेज्जपएसोगादे अस्थि पुण से अंते, कालओ णं जीवे न कयावि न आसि जाव निच्चे नत्थि पुण से अंते, भावओ णं जीवे अणंता णाणपज्जवा, अशंता दंसणपज्जवा, अणंता चरित्तपउजवा, अणंता अगुरुलहुयपज्ज वा नत्थि पुण से अंते। --भगवतीसूत्र, २.१.६०. २. गोयमा ! चदुन्विहे परमाणु पन्नत्ते तंजहा-दवपरमाणु, खेनपर माण, कालपरमाणु, भावपरमाण । --वही, २०. ५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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