SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 306
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञानमीमांसा २६१ नगाड़े उसके कान के पास बजाये जायं अथवा दूर, उसे उतना ही सुनाई देगा । दूसरे शब्दों में, उसकी समस्त इन्द्रियां एक प्रकार से संज्ञा-विहीन हो जाएंगी। ऐसी स्थिति में उसे सुखदुःख का अनुभव (जैन कर्मसिद्धान्त सर्वज्ञ में वेदनीय कर्म का अस्तित्व मानता है ) कैसे होगा, यह समझ में नहीं आता । सर्वज का अर्थ यदि तत्त्वज्ञ माना जाय तो अनेक असंगतियां दूर हो सकती हैं । तत्त्वज्ञ अर्थात् विश्व के मूलभूत तत्त्वों को साक्षात् जाननेवाला - प्रत्यक्ष अनुभव करनेवाला | जो तत्त्व को साक्षात् जान लेता है वह सब कुछ जान लेता है । तत्त्वज्ञान हो जाने के बाद और जानने योग्य रहता ही क्या है ? जिसे सम्यक् तत्त्वज्ञान हो जाता है और वह भी प्रत्यक्षतः उसका आचार स्वतः सम्यक् हो जाता है । नैश्चयिक सम्यक् ज्ञानाचारसम्पन्न व्यक्ति ही तत्त्वज्ञ है और वही एक प्रकार से सर्वज्ञ कहा जा सकता है । इस प्रकार का महामानव कीटउसकी पतंगों एवं कंकड़-पत्थरों की संख्या जाने या न जाने, महत्ता में कोई अन्तर नहीं आता । दर्शन और ज्ञान : WEING आत्मा का स्वरूप बताते समय हम कह चुके हैं कि उपयोग जीव का लक्षण है । यह उपयोग दो प्रकार का होता हैअनाकार और साकार । अनाकार उपयोग को दर्शन कहते हैं और साकार उपयोग को ज्ञान ।' अनाकार का अर्थ है - निर्वि कल्पक और साकार का अर्थ है - सविकल्पक । जो उपयोग का ग्रहण करता है वह निर्विकल्पक है और जो विशेष का ग्रहण करता है वह सविकल्पक है । सत्ता सामान्य सामान्य १. तत्त्वार्थ भाष्य २.६. 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy