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________________ ज्ञानमीमांसा २८३ अवधि और मनःपर्यय : ___ अवधि और मनःपर्यय दोनों ज्ञान रूपी द्रव्य तक सीमित हैं तथा अपूर्ण अर्थात् विकलप्रत्यक्ष हैं। इतना होते हुए भी दोनों में अन्तर है। यह अन्तर चार दृष्टियों से है-विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषय ।' मनःपर्ययज्ञान अपने विषय को अवधिज्ञान की अपेक्षा विशदरूप से जानता है । अत: उससे विशुद्धतर है। यह विशुद्धि विषय की न्यूनाधिकता पर नहीं किन्तु विषय की सूक्ष्मता पर अवलम्बित है । अधिक मात्रा में विषय का ज्ञान होना उतना महत्त्वपूर्ण नहीं जितना विषय की सूक्ष्मताओं का ज्ञान हाना । मनःपर्ययज्ञान से रूपी द्रव्य का सूक्ष्म अंश जाना जाता है । अवधिज्ञान उतनी सूक्ष्मता तक नहीं पहुंच सकता। अवधिज्ञान का क्षेत्र अंगुल के असंख्यातवें भाग से लेकर सारा लोक है। मनःपर्ययज्ञान का क्षेत्र मनुष्यलोक ( मानुषोत्तर पर्वत पर्यन्त ) है। अवधिज्ञान का स्वामी देव, नरक, मनुष्य और तिर्यञ्च किसी भी गति का जीव हो सकता है। मनःपर्ययज्ञान का स्वामी केवल चारित्रवान् मनुष्य हा हो सकता है । अवधिज्ञान का विषय सभी रूपी द्रव्य हैं (सब पयाय नहीं), किन्तु मनःपर्ययज्ञान का विषय केवल मन है जो कि रूपी द्रव्य का अनन्तवाँ भाग है। __उपर्युक्त विवेचन को देखने से मालूम पड़ता है कि अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान में कोई ऐसा अन्तर नहीं जिसके आधार पर दोनों ज्ञान स्वतन्त्र सिद्ध हो सकें। दोनों में एक ही ज्ञान की दो भूमिकाओं से अधिक अन्तर नहीं है । एक ज्ञान कम विशुद्ध है, दूसरा ज्ञान अधिक विशुद्ध है। दोनों के विषयों में १. विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्योऽवधिमन:पर्याययोः। -तत्त्वार्थसूत्र, १. २६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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