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________________ १५० जैन धर्म-दर्शन वहाँ आत्मा का अस्तित्व अवश्य स्वीकार करना पड़ता है । जो प्रत्यक्ष अनुभव से सिद्ध है उसे सिद्ध करने के लिए किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती । आत्मा स्वयं सिद्ध है क्योंकि उसी के आधार पर संशयादि उत्पन्न होते हैं । सुखदुःखादि को सिद्ध करने के लिए भी किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं । ये सब आत्मपूर्वक ही हो सकते हैं । अहं प्रत्यय का आधार कोई न कोई अवश्य होना चाहिए क्योंकि उसके बिना त्रैकालिक अहं प्रत्यय नहीं हो सकता। जड़ भूतों में वह शक्ति नहीं कि वे अहं प्रत्यय को उत्पन्न कर सकें क्योंकि अहं प्रत्यय के अभाव में जड़ का ज्ञान ही नहीं हो सकता । पहले अहं प्रत्यय होता है तब 'यह जड़ है' ऐसा ज्ञान होता है। ऐसी दशा में जड़ से अहं प्रत्यय उत्पन्न होता है, यह नहीं कहा जा सकता । अहं प्रत्यय के अभाव में जड़ तत्त्व की सिद्धि ही नहीं हो सकती, फिर यह कैसे बन सकता है कि जड़ से अहं प्रत्यय उत्पन्न हो । अहं प्रत्यय- पूर्वक ही जड़ प्रतीति होती है, जड़प्रतीति पूर्वक अहं प्रत्यय नहीं । यदि आत्मा नहीं है तो अहं प्रत्यय कैसे होता है ? आत्मा के अभाव में यह सन्देह कैसे हो सकता है कि आत्मा है या नहीं ?" यह हेतु मनोवैज्ञानिक दृष्टि से है। स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, संशय, निर्णय आदि जितनी भी मनोवैज्ञानिक क्रियाएं हैं, किसी एक स्थायी चेतन तत्त्व के अभाव में नहीं हो सकतीं । ये सारी क्रियाएं किसी एक चेतन तत्त्व को आधार या केन्द्र बनाकर ही घट सकती हैं । ज्ञान, संवेदना और इच्छा किसी एक आत्मिक तत्त्व के बिना सम्भव नहीं । ये तीनों क्रियाएं १. वही, १५५६. 2. Cognition, Affection and Conation. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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