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________________ १२० जैन धर्म-दर्शन सत् और द्रव्य को एकार्थक मानने की परम्परा पर दार्शनिक दृष्टि का प्रभाव मालूम होता है। जैन आगमों में सत् शब्द का प्रयोग द्रव्य के लक्षण के रूप में नहीं हुआ है । वहाँ द्रव्य को ही तत्त्व कहा गया है और सत् के स्वरूप का सारा वर्णन द्रव्य-वर्णन के रूप में रखा गया है । अनुयोगद्वार सूत्र में तत्त्व का सामान्य लक्षण द्रव्य माना गया है और विशेष लक्षण के रूप में जीवद्रव्य और अजीवद्रव्य माने गये हैं ।" वाचक उमास्वाति ने आगमिक मान्यता को दर्शन के स्तर पर लाकर द्रव्य को सत् कहा । उनकी दृष्टि में सत् और द्रव्य में कोई भेद न था । आगम की मान्यता के अनुसार भी सत् और द्रव्य में कोई भेद नहीं है । किन्तु इस सिद्धान्त का आगमकाल में सुस्पष्ट प्रतिपादन न हो सका । उमास्वाति ने दार्शनिक पुट देकर इसे स्पष्ट किया । 'सत्' शब्द का अर्थ वाचक उमास्वाति ने अन्य परम्पराओं से भिन्न रखा है । न्याय-वैशेषिक आदि वैदिक परम्पराएं सत्ता को कूटस्थ नित्य मानती हैं। इन परम्पराओं के अनुसार सत्ता सर्वदा एकरूप रहती है । उसमें तनिक भी परिवर्तन की सम्भावना नहीं रहती । जो परिवर्तित होती है वह सत्ता नहीं हो सकती । दूसरे शब्दों में, नैयायिक और वैशेषिक सत्ता को सामान्य नामक एक भिन्न पदार्थ मानते हैं जो सर्वदा एकरूप रहता है, कूटस्थ नित्य है, अपरिवर्तनशील है । इसके विपरीत वाचक उमास्वाति ने सत् को केवल नित्य ही नहीं माना अपितु परिवर्तनशील भी माना है । उत्पाद, व्यय और धौव्य तीनों का अविरोधी समन्वय ही सत का लक्षण है । उत्पाद और व्यय अनित्यता के सूचक हैं तथा धौव्य नित्यता का सूचक है । नित्यता का लक्षण कूटस्थ १. अविसे सिएदव्वे, विसेसिए जीवदव्वे अजीवदव्वे य-सू० १२३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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