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________________ यशस्तिलक को शब्द-सम्पत्ति विटंकः (२०११, ५९८७):श्रुतसागर विशेष ने इसका अर्थ एक स्थान पर पक्षियों वेडिका (२१७।१ उत्त०) : छोटी को बैठने के लिए बाहर निकाले गये नाव मलगे तथा दूसरे स्थान पर वरण्डक वेतालः (२११७): भूताविष्ट मृतक किया है। शरीर विरसालः (४०४१५) : राजमाष, । वेदण्डः (२९१।५) : हाथी उड़द की एक जाति वेल्लिकः (१९८४६ उत्त०): बालक, विरेयः (६८।१) : तालाब, पोखरा सोमदेव ने भीलों के पालकों को शब्दार्थ चिन्तामणि में नदी के लिए "विलात-वेल्लिकाः' कहा है। विरेफ शब्द आया है। वेलावनम् (२२११४) : समुद्रतट के विरोचनः (५२।२, ६५।२) : बगीचे सूर्य, अग्नि वेसरः (१८६१३ उत्त०) : श्रुतसागर विलातः (१९८४६ उत्त०): भील ने इसका अर्थ द्विशरीर किया है। विलेशयः (बालविलेशयवेष्टितविटप- वेहा (१८६।२) : गर्भ गिर गयो गाय भागम्, ४६२।३) : सर्प को 'वेहा' कहते हैं। विश्वकद्रः (११५।५): कुत्ता, सोमदेव वैकक्ष्यम् (२४।६ उत्त०): दुपट्टा, ने इसका कई बार प्रयोग किया है। ओढ़ने का चादर श्रुतसागर ने इसका अर्थ शिकार वैकक्षकः (३९६।५) : दुपट्टा, ओढ़ने करने में कुशल कुत्ता किया है। अभि- का चादर धान चिन्तामणि में भी विश्वकद्र का वैवश्वतः (२१६१६ उत्त०) : यम यही अर्थ किया गया है (४।३४७)। (रामा, १५।४५) विश्वद्यतिः (१५५।१) : सूर्य वैशिकम् (२६।१ उत्त०): माया, विशसनम् (२८१६) : हिंसा, पशुवध छल विष्टिः (४२७१४) : बेगार लेना, बिना श्वेतपिंगलः (१८६।७ उत्त०) : सिंह मूल्य दिये मजदूरी कराना। श्यामाकः(४०६।४) : साँवा (शाकु०. विष्वद्रीचिः (६५।१) : सर्वत्र, संसार ४।१३)। भर में शकुलः (४४०१७) : मत्स्य, मछली विष्वाणम् (१३४.६) : भिक्षा द्वारा सोमदेव ने इसके शकुल और शकुलि भोजन, भोजन (शब्दरत्नाकर ३।६३) । दो रूपों का प्रयोग किया है (२४७।१ वीरणः (३९०।२) : वंश, बांस उत्त०)। (महा० १।१३।१७) शतमखः (३६४।५) : इन्द्र (कुमार०. वीरुध (२००१७ उत्त०) : लता. २०६४, रघु० ९:१३) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002134
Book TitleYashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1967
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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