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________________ १९४ यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन और केडा ) से चौलमण्डल के सामुद्रिक पट्टनों और पश्चिम में यवन, बर्बर देशों ૨૧ तक के विशाल जल, थल पर छा गये थे । यशस्तिलक में सुवर्णद्वीप और ताम्रलिप्ति के व्यापार का उल्लेख है। पद्मिनीखटपट्टन का निवासी भद्रमित्र अपने समान धन और चारित्र वाले वणिक्पुत्रों के साथ सुवर्णद्वीप गया । वहाँ उसने बहुत धन कमाया और मनोवांछित सामग्री लेकर लौट पड़ा । रास्ते में दुर्दैव से असमय में ही समुद्र में तूफान आ गया और उसका जहाज डूब गया । आयु शेष होने के कारण वह अकेला जिन्दा बच गया और एक फलक के सहारे जैसे-तैसे पार लगा। २७ दूसरी कथा में पाटलिपुत्र के महाराज यशोध्वज के लड़के सुवीर ने घोषणा की कि जो कोई ताम्रलिप्ति पत्तन के सेठ जिनेन्द्रभक्त के सतखण्डा महल के ऊपर बने जिन-भवन में से छत्रत्रय के रूप में लगे अद्भुत वैडूर्य मणियों को ला देगा, उसे मनोभिलषित पारितोषिक दिया जायेगा । सूर्य नाम का एक व्यक्ति साधु का वेष बना कर जिनदत्त के यहाँ पहुँचा और एक दिन वहाँ से रत्न चुराकर भाग निकला । ર इसी कथा के अन्तर्गत जिनभद्र की विदेश यात्रा का भी उल्लेख है । सोमदेव ने इसे बहित्रयात्रा कहा है । जिनभद्र बहित्रयात्रा के लिए जाना चाहता था । घर किस के भरोसे छोड़े, यह समस्या थी । अन्त में वह उसी सूर्य नामक छद्म वेषधारी साधु पर विश्वास करके उसके जिम्मे सब छोड़कर विदेश यात्रा के लिए चल देता है । २९ अमृतमति का जीव एक भव में कलिंग देश में भैंसा हुआ । किसी सार्थवाह ने उसके सुन्दर और मजबूत शरीर को देखकर खरीद लिया और अपने सार्थ के साथ उज्जयिनी ले गया । 30 सोमदेव ने लिखा है कि यौधेय जनपद की कृषक वधुएँ अपनी नटखट चाल और नाना विलासों के द्वारा परदेशी सार्थों के नेत्रों को क्षण भर के लिए सुख देती हुईं खेतों में काम करने चली जाती थीं । २६. अग्रवाल, वही पृ० २ २७. यरा० पृ० ३४५ उत्त० २८. वही, पृ० ३०२ उत्त० २६. वही ३०. पृ० २२५ उत्त० ३१. पृ० १६ Jain Education International 39 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002134
Book TitleYashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1967
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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