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________________ १९० यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन समान शस्य सम्पत्ति लुटाती थी। इतनी उपज होती थी कि बोये हुए खेत की लुनाई करना, लुने धान्य की दौनी करना और दौनी किये धान्य को बटोर कर संग्रह करना मुश्किल हो जाता था। खेत में बीज डालने को वप्त कहा जाता था। पके खेत को काटने के लिए लवन कहते थे तथा काटी गयी धान्य की दौनो करने को विगाढना कहा जाता था। ___ पर्याप्त धान्य से समृद्ध प्रजा के मन में ही यह विचार सम्भव था कि हमारी यह पृथ्वी मानो स्वर्ग के कल्पद्रुमों की शोभा को लूट रही है।९। अनुपजाऊ जमीन ऊपर कहलाती थी। जैसे मूर्तों को तत्त्व का उपदेश देना व्यर्थ है, उसी प्रकार ऊपर जमीन को जोतना, बोना और उसमें पानी देना व्यर्थ है। वाणिज्य वाणिज्य की व्यवस्था प्रायः दो प्रकार की होती थी-स्थानीय तथा जहां दूर-दूर तक के व्यापारी जाकर धंधा करें। स्थानीय व्यापार के लिए हर वस्तु का प्रायः अपना-अपना बाजार होता था। केसर, कस्तूरी आदि सुगन्धित वस्तुएँ जिस बाजार में बिकती थीं वह सौगन्धियों का बाजार कहलाता था।११ वास्तव में यह बाजार का एक भाग होता था, इसलिए इसे विपणि कहते थे। इस बाजार में केसर, चन्दन, अगुरु आदि सुगन्धित वस्तुओं का ही लेन-देन होता था ।१२ जिस बाजार में माली पुष्पहार बेचते थे, उसे सोमदेव ने स्रग-जीवियों का ७. वपत्रक्षेत्रसंजातसस्यसंपत्तिबंधुराः । चिंतामणिसमारंभाः सन्ति यत्र वसुंधराः ॥-पृ० १६ ८. लवने यत्र नोप्तस्य लूनस्य न विगाहने । विगाढस्य च धान्यस्य नालं संग्रहणे प्रजाः ॥-पृ० १६ १. प्रजाप्रकामसस्याढ्याः सर्वदा यत्र भूमयः । मुष्णन्तीवामरावासकल्पद्रुमवनश्रियम् ॥-पृ० १६८ १०. यद्भवेन्मुग्धबोधानामूपरे कृषिकर्मवत् । -पृ. २८२ उत्त. ३१. सौगन्धिकानां विपणिविस्तारेषु ।-पृ. १८ उत्त. १२. परिवर्तमानकाश्मीरमलयजागुरुपारमलोद्गारसारेषु ।-वही For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002134
Book TitleYashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1967
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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