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________________ श्रावकाचार नाम देकर कहा है कि गृह से रहित अपना धर्म पालन करने के लिए उपचार एवं उपकार की अपेक्षा से रहित साधुओं को विधिपूर्वक अपने वैभव के अनुसार दान देना चाहिए। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में श्रद्धा और गुणों से युक्त ज्ञानी पुरुष तीन प्रकार के पात्रों को नौ प्रकार की दान विधि से संयुक्त होकर दान देता है वह चतुर्थ शिक्षाव्रतधारी होता है ।२। पुरुषार्थसिद्धयुपाय में दाता के गुणों से युक्त श्रावक को स्वपर अनुग्रह के हेतु विधिपूर्वक यथाजातरूप अतिथि साधु के लिए द्रव्य विशेष का संविभाग अतिथिसंविभाग बताया गया है। श्रावकप्रज्ञप्ति में न्याय से उपाजित तथा कल्पनीय अन्न आदि को जो देशकाल, श्रद्धा, सत्कार और क्रमसे युक्त अतिशय भक्तिके साथ दिया जाता है, उसे चौथा शिक्षाव्रत कहा है ।२ उपासकाध्ययन में इसे दान कहकर गृहस्थों को विधि, देश, आगम, पात्र और काल के अनुसार दान देना चाहिए, ऐसा भी कहा है। चारित्रसार आदिमें संयमकी रक्षा करते हुए जो विहार करते रहते हैं, ऐसे अतिथि के लिए आहारादि का जो विभाग किया जाता है, उसे अतिथिसंविभागव्रत कहा है। योगशास्त्र में अतिथियों को चार प्रकार के आहार भोजन, वस्त्र, मकान देना अतिथिसंविभाग बताया है। वसूनन्दिश्रावकाचार तथा सागारधर्मामृत में भी पुरुषार्थसिद्धयुपाय के समान ही इसका स्वरूप प्रतिपादित है ।५ लाटीसंहिता में इसे दान कहकर उत्तम, मध्यम, जघन्य पात्रों में से जो भी मिल जाये, उसे विधिपूर्वक दान देना चाहिए, जो प्रासुक, शुद्ध एवं विनय पूर्वक हो । १. "दानं वैय्यावृत्यं धर्माय तपोधनाय गुण निधये । अनपेक्षितोपचारोपक्रियमगृहाय विभवेन ॥" - रत्नकरण्डकश्रावकाचार, १११ २. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ५९ १. पुरुषार्थसिद्धथु पाय, १६८ २. श्रावकप्रज्ञप्ति, ३२५ ३. उपासकाध्ययन, ७३५ ४. योगशास्त्र, ३/८७ ५. क. वसुनन्दिश्रावकाचार, २१८ ___ ख. सागारधर्मामृत, ५/४२ ६. लाटीसंहिता, २२२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002128
Book TitleUpasakdashanga aur uska Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhash Kothari
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1988
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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