SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रावकाचार ११९ चाँदी के रुपये आदि सिक्के जिनसे लेन-देन का व्यवहार चलता है, हिरण्य तथा स्वर्ण को सुवण्ण कहते है। इनका अतिक्रमण करना अतिचार है।' लाटीसंहिता में हिरण्य का अर्थ हीरा, मोती, मानिक, आदि जवाहरात एवं सोना, चाँदी, ताँबा, पीतल आदि को सुवर्ण माना है । इनका अतिक्रमण करना यह अतिचार है । २ ४. दुपयचउपयपमाणाइक्कमे-चारित्रसार में सेविका स्त्री को दासी और सेवक पुरुषों को दास कहा है, यहाँ दुपय-चउपय की जगह दास-दासी नाम देकर उसी का स्वरूप दिया गया है । ३ लाटीसंहिता में भी यहीं नाम और स्वरूप बताया है। वैसे सामान्यरूप से द्विपद का अर्थ दास-दासी और चतुष्पद का अर्थ पशुओं से लेना उपयुक्त है । इनका अतिक्रमण करना अतिचार कहलाता है। ५. कुवियपमाणाइक्कमे "कुप्यं गृहोपस्करणंफालकच्चोलकादिअयं चातिचारो नाभोगादिना" उपासकदशांगसूत्रटीका में आचार्य अभयदेव ने ग्रहोपकरण, शय्या, आसन, वस्त्र की जो मर्यादा की है, उसका उल्लंघन करना कुविय प्रमाणातिक्रम है ।५ चारित्रसार में वस्त्र, कपास, कोशा, चन्दन, बर्तन आदि को कूप्य कहकर इनका अतिक्रमण करना कुवियपमाणाइक्कमे बताया है। लाटीसंहिता में कुप्य शब्द का अर्थ बर्तन से लिया है। इनकी संख्या परिमाण का भी अतिक्रमण नहीं करना १. क. “हिरण्यं रुप्यादिव्यवहार प्रयोजनम् सुवर्ण विख्यातम्" -चारित्रसार, पृष्ठ २४१ ख. सर्वार्थसिद्धि, ७/२९ ग. तत्त्वार्थवार्तिक, ७/२९ २. लाटीसंहिता, ५/१०१-१०२ ३. “दासीदासं भृ त्यस्त्रीपुरुषवर्गः'-चारित्रसार, २४१ ४. लाटीसंहिता, ५/१०५-१०६ ५. उपासकदशांगसूत्रटीका- आचार्य अभयदेव, पृष्ठ ३४ ६. "कुप्यं क्षोमकापासकोशेयचन्दनादि" -चारित्रसार, २४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002128
Book TitleUpasakdashanga aur uska Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhash Kothari
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1988
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy