SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 122
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रावकाचार १०९ है । उपासकाध्ययन की भूमिका में पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री ने कहा कि यह देशविरतिश्रावक व्रत ग्रहण करने का प्रारम्भिक स्तर माना जा सकता है । हो सकता है यह सम-सामयिक परिस्थितियों से भी प्रभावित हो । ' अतिचार ब्रह्मचर्यं अणुव्रत में स्खलन न आए इसलिए इसके भी पांच अतिचार कहे गये हैं । उपासक दशांगसूत्र में लिखा है कि "सदार संतोसिए पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा, तं जहा - इत्तरियपरिग्गहियागमणे, अपरिग्गहियागमणे, अनंगकोडा, पर- विवाह करणे, कामभोग तिव्वाभिलासे" अर्थात् स्वदार सन्तोष व्रत के पांच अतिचार जानने योग्य हैं, परन्तु आचरण करने योग्य नहीं हैं । ये इत्त्वरपरिगृहीतागमन, अपरिगृहीतागमन, अनंगक्रीडा, परविवाहकरण, कामभोगतीव्र अभिलाषा है । रत्नकरण्डकश्रावकाचार में दूसरों का विवाह कराना, कामसेवन के सिवाय अन्य अंगों से कामसेवन करना, अश्लील वचन कहना, काम करने की अधिक तृष्णा रखना एवं व्यभिचारिणी स्त्रियों के यहाँ गमन करना ये पाँच अतिचार गिनाये हैं । इन्हीं का उल्लेख तत्त्वार्थसूत्र में आचार्य उमास्वाति ने किया है । सोमदेवसूरि ने उपासकाध्ययन में परायी स्त्री के साथ संगम, अनङ्गक्रीड़ा, परविवाह करना, काम भोग की तीव्र अभिलाषा एवं विटत्व ये पाँच अतिचार कहे हैं | पं० आशाधर ने भी सागारधर्मामृत में रत्नकरण्डकश्रावकाचार में वर्णित अणुव्रत ही गिनाये हैं । " १. उपासकाध्ययन - प्रस्तावना, पृष्ठ ८१-८२ २. उवासगदसाओ, १/४४ ३. “अन्य विवाहाकरणानङ्ग क्रीड़ाविटत्वविपुलतृषः । इत्वरिकागमनं चास्मरस्य पञ्च व्यतीचाराः ॥ - रत्नकरण्डकश्रावकाचार, श्लोक ६० ४. " पर विवाहकरणोत्वरिका - परिगृहीता परिगृहीतागमनानङ्ग क्रीड़ाकाम तीव्राभिनिवेशा:- तत्त्वार्थ सूत्र ७/२८ ५. उपासकाध्ययन, श्लोक ४१८ ६. सागारधर्मामृत ४/५८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002128
Book TitleUpasakdashanga aur uska Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhash Kothari
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1988
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy