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________________ अवतार की अवधारणा : २५१ उपलब्ध है फिर भी ज्ञान श्रद्धा से ऊपर अपना स्थान प्राप्त नहीं कर सका बल्कि श्रद्धा पर आश्रित माना गया, श्रद्धाशील को ही ज्ञान की प्राप्ति होती है । श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि निरन्तर मेरे ध्यान में लीन और प्रीतिपूर्वक भजने वाले लोगों को मैं बुद्धियोग प्रदान करता हूँ जिससे वे मुझको प्राप्त कर लेते हैं ।" इस प्रकार हम ज्ञान को श्रद्धा का प्रतिफल कह सकते हैं । अतः गीता का मन्तव्य है कि यदि साधक श्रद्धा या भक्ति का सम्बल लेकर साधना के क्षेत्र में आगे बढ़े तो उसे ईश्वरीय दया के रूप में ज्ञान प्राप्त हो जाता है । श्रीकृष्ण कहते हैं कि श्रद्धायुक्त भक्तजनों पर कृपा करने के लिए मैं स्वयं उनके अन्तःकरण में प्रवेश कर ज्ञानरूपी प्रकाश से अज्ञानजन्य अन्धकार को नष्ट कर देता हूँ ।" भक्ति से ही ज्ञान प्राप्त होता है और भक्ति या समर्पण भाव से किया गया कर्म भी बन्धन नहीं होता है । निष्काम कर्म वस्तुत: समर्पण या भक्ति से निःसृत कर्म है | वस्तुतः गीता में कर्म और ज्ञान को भक्ति से जोड़ने का प्रयत्न किया गया है। गीता कहती है कि कर्मफल को ईश्वर को अर्पित करते हुए जीव को कर्म करना चाहिए । " स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धि विन्दति मानवः । ३ "स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धि लभते नरः । "४ अपने-अपने कर्म में लगा हुआ मनुष्य सिद्धि या मुक्ति को प्राप्त करता है । कर्म करते समय उसकी भावना यह होनी चाहिए कि वह अपने कर्मों 1 द्वारा भगवान् की अर्चना ( पूजा ) कर रहा है अथवा देवी आदेश के रूप में कर्म कर रहा है । इसी में कर्ममार्ग और भक्तिमार्ग का समन्वय है । गीता में स्वयं श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि मेरे लिए ही कर्म करने वाला, आसक्तिहीन, सब प्राणियों में वैर-रहित मेरा भक्त मुझे ही प्राप्त १. गीता, १०/१० २. " तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः । नाशयाम्यात्मभावस्था ज्ञानदीपेन भास्वता ।" - वही, १०/११ ३. वही, १८/४६ ४. वही, १८/४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002127
Book TitleTirthankar Buddha aur Avtar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Gupta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1988
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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