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________________ प्रागैतिहासिक काल की जैन साध्वियां एवं विदुषी महिलाएँ : २९: हुए कहा, "प्रभो ! मुझे प्रसन्नता है कि मेरी कुक्षि से उत्पन्न छः पुत्रों ने मुक्ति का सर्वोत्कृष्ट साम्राज्य प्राप्त करनेवाली मुनि दीक्षा ग्रहण की तथा एक पुत्र (कृष्ण) ने उत्कृष्ट कोटि का विशाल साम्राज्य प्राप्त किया । पर मेरा हृदय संतप्त हो रहा है कि सातों पुत्रों की शैशवावस्था के लालनपालन का अति मनोरम आनन्द मैंने स्वल्प मात्रा में भी अनुभव नहीं किया ।" इस पर केवल ज्ञानी प्रभु ने पूर्वभव में सपत्नी के रत्न चुराने की बात कह सुनाई ।" समवसरण से लौटकर आने के पश्चात् भी देवकी अपने संतप्त हृदय को आश्वस्त न कर सको । सात-सात पुत्रों की जननी होते हुए भी देवकी एक भी पुत्र को स्तन पान कराने, मीठी-मीठी लोरियाँ गाकर सुनाने तथा शैशवावस्था की अतिप्रिय तुतलाती मीठो बोली आदि को श्रवण कर सकने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ । इसी शोक सागर में गोते लगाती हुई वह चिन्तित रहने लगी और अन्न-जल त्याग दिया । माता की मनोदशा देख कृष्ण ने इष्टदेव का स्मरण किया और एक लघु-भ्राता का वरदान प्राप्त किया । कालान्तर में देवकी ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका गज-सुकुमाल नाम रखा गया । स्वयं दीक्षित होने के पश्चात् माता देवकी ने अपने पुत्र गज-सुकुमाल को बहुत करुण शब्दों में संसार भोग के लिए कहा परन्तु अपने प्रण पर दृढ़ कुमार ने युवावस्था में तोर्थङ्कर अरिष्टनेमि के पास प्रव्रज्या ग्रहण की। उपरोक्त पृष्ठों में देवकी के जीवन और उसकी क्रियाओं का वर्णन जैन धर्मग्रंथों के आधार पर किया गया है । १. आ० हस्तीमलजी - जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग १, पृ० २०९ २. देवकी के चरित्र का मूल्यांकन किया जाता है तो प्रतीत होता है कि जैन धर्म तथा वैदिक साहित्य में, देवकी के स्वरूप और चरित्र में अन्तर है । जैन धर्म में पूर्वजन्म में रत्नों की चोरी करने पर इस जन्म में पुत्रों से वियोग सहना पड़ा | अशुभ कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है । श्रीमद् भागवत के अनुसार देवकी बड़ी सती साध्वी स्त्री थी । (श्रीमद् भागवत दशम स्कन्द, ५५ ) | कहा जाता है कि देवकी का शरीर पुण्य प्रतापी था । उसके शरीर में सम्पूर्ण देवताओं का धर्म में तो केवल देवकी को आठ पुत्रों की माता दर्शाया देवकी के शरीर में सम्पूर्ण देवताओं से निवास होने से यह बड़ा ओजमय और Jain Education International For Private & Personal Use Only निवास था । जैन गया है । परन्तु कहा जा सकता. www.jainelibrary.org
SR No.002126
Book TitleJain Dharma ki Pramukh Sadhviya evam Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHirabai Boradiya
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Religion
File Size16 MB
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