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________________ २० : जैनधर्म को प्रमुख साध्वियां एवं महिलाएं मल्लिकुमारी की योग्यता, बुद्धिमत्ता और नोति-परायणता से राजा कुम्भ प्रभावित एवं आश्वस्त होकर छः राजाओं को पृथक्-पृथक् आने का सन्देश भिजवा दिया। सन्देश पाकर सभी राजा मिथिला राजधानी में पहुँचे और मोहन गृह में स्थापित मल्लि को स्वर्ण प्रतिमा को निहारने लगे। जब मल्लिकूमारी ने भूपतियों को रूप दर्शन में तन्मय देखा तो स्वर्णपुतली का ढक्कन हटा दिया। ढक्कन हटते ही चिरसंचित अन्न को दुर्गन्ध चारों ओर फैल गई और सब भूपति नाक बन्द कर इधरउधर भागने की चेष्टा करने लगे। उचित अवसर देख मल्लि भगवती ने उन्हें प्रतिबोध देते हुए क्षणिक भौतिक सुख को त्यागकर आत्मज्ञान की ओर प्रेरित किया, तथा पूर्वभव का जीवन वृत्तान्त कह सुनाया । मल्लि भगवती के इन उद्बोधक वचनों से राजाओं को जाति-स्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ और इस ज्ञान से उन्होंने अपने-अपने पूर्वभवों को जाना । अन्त में मल्लिकुमारी ने माता-पिता की अनुमति प्राप्त कर दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा के समय तीन सौ स्त्रियों तथा तीन सौ पुरुषों ने भी संयम ग्रहण किया। परम्परानुसार दीक्षा तथा केवल-ज्ञान का महोत्सव मनाया गया और तीर्थ की स्थापना की गई। अन्य तीर्थंकरों की तुलना में मल्लिनाथ में यह विशिष्टता रही कि उन्होंने जिस दिन दीक्षा ग्रहण को उसी दिन उन्हें केवल-ज्ञान को भी प्राप्ति हुई। केवली बनकर महती परिषद् में धर्मदेशना सुनाई। उपदेश सुनकर महाराज कुम्भ और प्रभावती ने श्रावक-धर्म स्वीकार किया और जितशत्र आदि छः राजाओं ने मुनि-दीक्षा ग्रहण की। ___ आपके संघ में साध्वियों की आभ्यंतर परिषद् और साधुओं को बाह्य परिषद् का उल्लेख प्राप्त होता है। आपके समवसरण में साध्वियों का अग्रस्थान माना गया है, क्योंकि उन्हें आभ्यंतर परिषद् में गिना गया है । तीर्थंकर मल्लि जनमानस को आत्मशद्धि का मार्ग बताते हए वर्षों तक ग्रामों और नगरों में घूम-घूम कर धर्म का उपदेश देती रहीं। अन्त में ग्रीष्मकाल के चैत्र शुक्ला चतुर्थी को अर्धरात्रि के समय पाँच सो आर्यिकाओं १. (क) आनन्दऋषिजी-ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र-पृ० ३१३ (ख) आ० हस्तीमलजी-जैन धर्म का मौलिक इतिहास-पृ० १३१ (ग) चौबीस तीर्थंकर चरित्र में एक हजार पुरुष और तीन सौ स्त्रियों के साथ दीक्षित होना लिखा है जो भ्रान्त प्रतीत होता है । २. आ० हस्तीमलजी-जैन धर्म का मौलिक इतिहास-प० १३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002126
Book TitleJain Dharma ki Pramukh Sadhviya evam Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHirabai Boradiya
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Religion
File Size16 MB
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