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________________ ( २४ ) कि जैनाचार्यों ने विवाह विधि के सम्बन्ध में गम्भोरता से चिन्तन नहीं किया किन्तु यह सत्य है कि उन्होंने स्त्री को गरिमाहीन बनाने का प्रयास भी नहीं किया । जहाँ हिन्दू परम्परा में विवाह स्त्री के लिए बाध्यता थी । वहीं जैन परम्परा में ऐसा नहीं माना गया । प्राचीनकाल से लेकर अद्यावधि विवाह करने न करने के प्रश्न को स्त्री- विवेक पर छोड़ दिया गया । जो स्त्रियाँ यह समझती थीं कि वे अविवाहित रहकर अपनी - साधना कर सकेंगी उन्हें बिना विवाह किये ही दीक्षित होने का अधिकार था । विवाह संस्था जैनों के लिये ब्रह्मचर्यं की साधना में सहायक होने के रूप में ही स्वीकार की गई। जैनों के लिए विवाह का अर्थ था अपनी वासना को संयमित करना । केवल उन्हीं लोगों के लिए विवाह संस्था में प्रवेश आवश्यक माना गया था जो पूर्णरूप से ब्रह्मचर्य का पालन करने में असमर्थ पाते हों अथवा विवाह के पूर्व पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन का व्रत नहीं ले चुके हैं । अतः हम कह सकते हैं कि जैनों ने ब्रह्मचर्यं को आंशिक साधना के अंग के रूप में विवाह संस्था को स्वीकार करके भो नारी को स्वतन्त्र निर्णय शक्ति को मान्य करके उसकी गरिमा को खण्डित नहीं होने दिया । बहुपति और बहुपत्नी प्रथा विवाह संस्था के सन्दर्भ में एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न बहुविवाह का भी है । इसके दो रूप हैं बहुपत्नी प्रथा और बहुपति प्रथा । यह स्पष्ट है कि द्रौपदी के एक अपवाद को छोड़कर हिन्दू और जैन दोनों ही परम्पराओं ने नारी के सम्बन्ध में एक- पति प्रथा की अवधारणा को ही स्वीकार किया और बहुपति प्रथा को धार्मिक दृष्टि से अनुचित माना गया । जैनाचार्यों ने द्रौपदी के बहुपति होने की अवधारणा को इस आधार पर औचित्यपूर्ण बताने का प्रयास किया है कि सुकमालिका आर्या के भव में उसने अपने तप के प्रताप से पाँच पति प्राप्त करने का निदान (निश्चय कर लिया था । अतः इसे पूर्व कर्म का फल मानकर सन्तोष किया गया । किन्तु दूसरी ओर पुरुष के सम्बन्ध में बहुपत्नी प्रथा की स्पष्ट अवधारणा आगमों और आगमिक व्याख्या साहित्य में मिलती है । इनमें ऐसे अनेक सन्दर्भ हैं जहाँ पुरुषों को बहुविवाह करते दिखाया गया है । दुःख तो यह है कि उनकी इस प्रवृत्ति की समालोचना भी नहीं की गई है । अतः उस युग में जैनाचार्य इस सम्बन्ध में तटस्थ भाव रखते थे, यही कहा जा सकता है । २. ज्ञाताधर्मकथा अध्याय १६, सूत्र, ७२-७४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002126
Book TitleJain Dharma ki Pramukh Sadhviya evam Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHirabai Boradiya
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Religion
File Size16 MB
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