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________________ ( १९ ). नारी को स्वतन्त्रता नारी को स्वतन्त्रता को लेकर प्रारम्भ में जैनधर्म का दृष्टिकोण उदार था । यौगलिक काल में स्त्री-पुरुष सहभागी होकर जीवन जीते थे । आगम-ग्रन्थ ज्ञाताधर्मकथा' में राजा द्रुपद द्रौपदी से कहते हैं कि मेरे द्वारा विवाह किये जाने पर तुझे सुख-दुःख हो सकता है अतः अच्छा हो कि तू अपना वर स्वयं ही चुन । यहाँ ग्रन्थकार के ये विचार वैवाहिक जीवन के लिये नारी-स्वातन्त्र्य के समर्थक हैं। इसी प्रकार हम देखते हैं 'कि उपासकदशांग में महाशतक अपनी पत्नी रेवती के धार्मिक विश्वास, खान-पान और आचार-व्यवहार पर कोई जबरदस्ती नहीं करता है। जहाँ आनन्द आदि श्रावकों की पत्नियां अपने पति का अनुगमन करती हुई महावीर से उपासक व्रतों को ग्रहण करती हैं और धर्मसाधना के क्षेत्र में भी पति को सहभागी बनती हैं, वहीं रेवती अपने पति का अनुगमन नहीं करती है, मात्र यही नहीं, वह तो अपने मायके से मँगाकर मद्य-मांस का सेवन करती है, और महाशतक के पूर्ण साधनात्मक जीवन में विघ्न-बाधाएँ भी उपस्थित करती है। इससे ऐसा लगता है कि आगम युग तक नारी को अधिक स्वातन्त्र्य था किन्तु आगमिक व्याख्या साहित्य में हम पाते हैं कि पति या पत्नी अपने धार्मिक विश्वासों को एक दूसरे पर लादने का प्रयास करते हैं । चूणि साहित्य में ऐसी अनेक कथाएँ हैं जिनमें पुरुष स्त्री को अपने धार्मिक विश्वासों की स्वतन्त्रता नहीं देता है । ___ इसी प्रकार धर्मसंघ में भी आगम युग में भिक्षुणी संघ की व्यवस्था को भिक्षुसंघ से अधिक नियन्त्रित नहीं पाते हैं । भिक्षुणी संघ अपने आन्तरिक मामलों में पूर्णतया आत्मनिर्भर था, गणधर अथवा आचार्य का उस पर बहुत अधिक अंकुश नहीं था, किन्तु छेदसूत्र एवं आगमिक व्याख्या साहित्य के काल में यह नियन्त्रण क्रमशः बढ़ता जाता है । इन ग्रंथों में चातुर्मास, १. जस्स णं अहं पुत्ता ! रायस्स वा जुवरायस्स वा भारियत्ताए सयमेव दलइस्सामि, तत्थ णं तुमं सुहिया वा दुक्खिया वा भविज्जासि । -ज्ञाताधर्मकथा १६/८५ २. तए णं सा रेवई गाहावइणी तेहिं गोणमंसेहिं सोल्लेहिं य ४ सुरं च आसाएमाणी ४ विहरइ । --उवासगदसाओ २४४ तए णं तस्स महासयगस्स समणोवासगस्स बहूहिं सील जाव भावेमाणस्स योद्दस संवच्छरा वइक्कंता । एवं तहेव जेह्र पुत्तं ठवेइ जाव पोसहसालाए धम्मपण्णत्ति उवसंपज्जिता णं विहरइ। -उवासगदसाओ, २४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002126
Book TitleJain Dharma ki Pramukh Sadhviya evam Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHirabai Boradiya
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1991
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Religion
File Size16 MB
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