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________________ जैन धर्म में अहिंसा उन्हें कष्ट पहुँचाता है उसके विषय में तो कहना ही क्या ?' उसे हमेशा हँसमुख रहना चाहिए, किसी पर भौंहे टेढी नहीं करनी चाहिए यानी किसी पर क्रोध नहीं करना चाहिए, दूसरों की कुशलता का ख्याल रखना चाहिए तथा संसार के सभी प्राणियों से मित्रवत् व्यवहार करना चाहिए। इसके 'क्षान्तिपारमिता' में द्वेष और क्षमा पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि द्वेष सबसे बड़ा पाप है तथा क्षमा सबसे बड़ा तप। जिसका दिल द्वेष से दूषित है, उसे कभी भी न शान्ति मिलती है और न सुख । उसे नींद तक नहीं आती और धैर्य तो उससे बिल्कुल ही दूर हो जाता है। द्वेष से सिर्फ दूसरों को ही कष्ट नहीं पहुँचता, बल्कि स्वयं उसके पालने वाले को भी उससे अनेक दुःख प्राप्त होते हैं। इस प्रकार 'बोधिचर्यावतार' में क्षमा और मित्रता के माध्यम से अहिंसा के सिद्धान्त को प्रश्रय मिलता है। बौद्ध-परम्परा में अहिंसा को मैत्री-भावना के पालन में एक सबल साधनस्वरूप प्रमुखता मिली है। यज्ञसंबंधी हिंसा को इसने सही या धर्मानुकूल नहीं माना है । यद्यपि इसने मानव से एकेन्द्रिय जीव पर्यन्त हिंसा-अहिंसा का विचार किया है, परिस्थिति के १. एकस्यापि हि सत्त्वस्य हितं हत्वा हतो भवेत् । अशेषाकाशपर्यन्तवासिनां किम देहिनाम् ॥१०॥ चतुर्थ परिच्छेद, बोधिचित्ताप्रमाद । २. एवं वशीकृतस्वात्मा नित्यं स्मितमखो भवेत् । त्यजेद् भृकुटिसंकोचं पूर्वाभाषो जगत्सुहृत् ॥७१॥ पंचम परिच्छेद, संप्रजन्य-लक्षण। ३. न च द्वेषसमं पापं न च शान्तिसमं तपः ।। तस्मात्क्षान्ति प्रयत्नेन भावयेद्विविधैर्नयैः ॥२॥ मनः शमं न गृह्णाति न प्रीतिसुखमश्नते । न नितां न धृति याति द्वेषशल्ये हृदि स्थिते ।।३।। पूजयत्यर्थमानर्यान् येऽपि चैनं समाश्रिताः । तेऽप्येनं हन्तुमिच्छन्ति स्वामिनं द्वेषदुर्भगम् ॥४।। षष्ठ परिच्छेद, क्षान्ति-पारमिता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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