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________________ जैनेतर परम्पराओं में अहिंसा ४५ ર मत्स्यपुराण - अहिंसा मुनि-व्रतों में से एक है । जितना पुण्य चार वेदों के अध्ययन से या सत्य बोलने से अर्जित होता है उससे कहीं अधिक पुण्य की प्राप्ति अहिंसा व्रत के पालन से होती है । ऐसा कहकर अहिंसा के स्थान को बहुत ही ऊंचा उठाने का प्रयास किया गया है । आगे चलकर यज्ञ में किए गए पशु वध का निषेध करते हुए कहा गया है कि यज्ञ में पशु-हिंसा करने से धर्म के नाम पर बहुत बड़ा अधर्म होता है । मुनिजन कभी भी हिंसा या हिंसापरक यज्ञ का अनुमोदन नहीं करते, क्योंकि इन लोगों के अनुसार शरीर को अनेक वर्षों तक तपाकर मुक्ति पाना तथा कन्दमूल खाकर क्षुधातृप्ति करना श्रेयस्कर है; ये मुनिजन कभी भी हिंसा की प्रशंसा नहीं करते | 3 ब्रह्मपुराण - शिव-पार्वती वार्तालाप में पार्वती के पूछने पर कि कौन-कौन से लोग मुक्ति पाने योग्य होते हैं, शिव उत्तरस्वरूप कहते हैं - प्रलय और उत्पत्ति को जानने वाले, सर्वदर्शी, सर्वज्ञ एवं वीतराग पुरुष कर्म के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं; उसी प्रकार मन, १. सुनिव्रतमहिंसादिपरिगृह्य त्वयाकृतम् । धर्मार्थशास्त्ररहितं शत्रु प्रति विभावसो || १५ || म० पु०, प्र० ६०. २. चतुर्वेदेषु यत् पुण्यं यत् पुण्यं सत्यवादिषु । हसायान्तु यो धर्मो गमनादेव तत् फलम् ||४८ || म० पु० अ० १०५. ३. प्रधर्मो बलवानेष हिंसा धर्मेप्सया तव । नवः पशुविधिस्त्विष्टस्तव यज्ञे सुरोत्तम ।।१२|| श्रधर्मो धर्म्मघाताय प्रारब्धः पशुभिस्त्वया । नाधर्मो ह्यधर्मोऽयं न हिंसा धर्म्म उच्यते । आगमेन भवान् धर्मं प्रकरोतु यदीच्छति ॥ १३ हिंसास्वभावो यज्ञस्य इति मे दर्शनागमः । तथैते भाविता मन्त्रा हिंसालिंग महर्षिभिः ॥ २१ ॥ तस्मान्नहिंसायज्ञे स्याद्यदुलामृषिभिः पुरा । ऋषिकोटिसहस्राणि स्वैस्तपोभिदिवंगताः ॥ २६ ॥ तस्मान्न हिसायज्ञञ्च प्रशंसन्ति महर्षयः । उञ्छो मूलं फलं शाकमुदपास्त्र तपोधनाः ॥३०॥ म० पु०, प्र० १४२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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