SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८ जैन धर्म में अहिंसा (तथा) तेरी कर्म न करने में (भी) प्रीति न होवे । हे धनंजय ! आसक्ति को त्याग कर ( तथा ) सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धि वाला होकर योग में स्थित हुआ कर्मों को कर । (यह) समत्वभाव ही योग नाम से कहा जाता है।'' यदि कार्य के फल के प्रति कर्ता को मोह या राग न होगा तो उसके मन में किसी के प्रति द्वेष भी न होगा और द्वेष के अभाव में न क्रोध हो सकता है और न हिंसा ही। इसके अलावा श्री कृष्ण अपने को सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, आदि पुरुष बताते हुए कहते "हे अर्जुन ! ऐसा समझो कि संपूर्ण भूत इन दोनों प्रकृतियों (परा एवं अपरा) से ही उत्पत्ति वाले हैं और मैं संपूर्ण जगत् का उत्पत्ति तथा प्रलय रूप हूँ-पृथ्वी में पवित्र गन्ध और अग्नि में तेज हूँ और सम्पूर्ण भूतों में उनका जीवन हूँ अर्थात् जिससे वे जीते हैं वह मैं हूँ और तपस्वियों में तप हूं। हे अर्जुन ! तू सम्पूर्ण भूतों का सनातन कारण मेरे को ही जान-मैं सब भूतों के हृदय में स्थित सबकी आत्मा हूँ तथा संपूर्ण भूतों का आदि, मध्य और अन्त भी मैं ही हूँ।"२ १. कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥४७॥ योगस्थ: कुरुकर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय । सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥४८॥ गीता, प० २. २. एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभव: प्रलयस्तथा ॥६॥ पुण्योगन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसी। जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ॥६॥ बीजं मा सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् ॥१०॥ ० ७. प्रहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः । प्रहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ॥२०॥ अ० १०; प्र. १०, श्लोक ३४ भी देखें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy