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________________ जैन धर्म में अहिंसा __ जो सम्पूर्ण प्राणियों का आत्मा होकर सब प्राणियों के हित में लगा हुआ है, जिसका अपना कोई अलग मार्ग नहीं है तथा जो ब्रह्मपद को प्राप्त करना चाहता है, उस समर्थ ज्ञानयोगी के मार्ग की खोज करने में देवता भी मोहित हो जाते हैं ॥२३॥" इतना ही नहीं पिता-पुत्र संवाद में साफ-साफ कहा गया है "जो मन, वाणी, क्रिया तथा अन्य कारणों द्वारा किसी भी प्राणी की जीविका का अपहरण करके उसकी हिंसा नहीं करता, उसको दूसरे प्राणी भी वध या बन्धन के कष्ट में नहीं डालते ।"२ अहिंसा स्वतः एक पूर्ण धर्म है और हिंसा एक अधर्म । ३ अहिंसा सबसे महान् धर्म है क्योंकि इससे सभी प्राणियों की रक्षा होती है। इसकी व्यापकता पर बल देते हुए व्यास कहते हैं कि १. सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि । यदा पश्यति भूतात्मा ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥२१॥ यावानात्मनि वेदात्मा तावानात्मा परात्मनि । य एवं सततं वेद सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥२२॥ सर्वभूतात्मभूतस्य विभोभूतहितस्य च। देवाऽपि मार्गे मुह्यन्ति अपदस्य पदैषिणः ॥२३॥ शां०५०, . २३६. २. यो न हिंसति सत्त्वानि मनोवाक्कर्महेतुभिः ॥२७॥ जीवितार्थापनयन: प्राणिभिर्न स बयते । शा०प०, प्र० २७७. ३. अहिंसा सकलो धर्मो हिंसाधर्मस्तथाहितः ॥२०॥ अ० २७२. ४. न भूतानामहिंसाया ज्यायान् धर्मोऽस्ति कश्चन । यस्मान्नोद्विजते भूतं जातु किंचित् कथंचन । सोऽभयं सर्वभूतेभ्य: सम्प्राप्नोति महामुने ॥३०॥ ० २६२. ५. यथा नागपदेऽन्यानि पदानि पदगामिनाम् । सर्वाण्येवापि धीयन्ते पदजातानि कोञ्जरे ॥१८॥ एवं सर्वहिंसाया धर्मार्थमपिधीयते । अमृतः स नित्यं वसति यो हिंसा न प्रपद्यते ।।१६।। अहिंसकः समः सत्यो धृतिमान् नियतेन्द्रियः । शरण्यः सर्वभूतानां गतिमाप्नोत्युनुत्तमाम् ॥२०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002125
Book TitleJain Dharma me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBasistha Narayan Sinha
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2002
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size13 MB
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