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________________ ५४ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन __ अत: जब नियतस्वलक्षणावलम्बिनी दृष्टि से देखने पर जीवघातादि से निवृत्ति में व्रत का लक्षण दिखाई नहीं देता तब निश्चय होता है कि इन्हें उपचार से व्रत कहा गया है, ये वास्तविक व्रत नहीं हैं। और तब हम उपचारावलम्बिनी व्यवहारदृष्टि का आश्रय कर उपचार के निमित्त और प्रयोजन की अन्वेषण करते हैं, तब ज्ञात होता है कि उपचरित व्रतों और वास्तविक व्रतों में साध्य-साधकभाव है, इसलिए उपचरितव्रत कथंचित् उपादेय हैं। शुद्धात्मस्वरूप में अवस्थान की 'समिति' आदि संज्ञाएँ निज शुद्धात्मस्वरूप में निश्चलतापूर्वक स्थित होना समिति का नियतस्वलक्षण है। इसलिए इसकी नियतस्वलक्षणावलम्बी निश्चयनय से समिति संज्ञा है। इसकी सिद्धि में सहायक होने से सम्यक् ईर्या ( यत्नपूर्वकगमन ), सम्यक् भाषा ( हितमितप्रियवचन ), सम्यक् एषणा ( समभावपूर्वक निर्दोष आहार-ग्रहण ), सम्यक् आदान-निक्षेपण ( कमण्डलु आदि को यत्नपूर्वक उठाना-रखना ) तथा सम्यक् व्युत्सर्ग ( निर्बाधस्थान में मलमूत्र-विसर्जन ) को जिनेन्द्रदेव ने उपचार से समिति संज्ञा प्रदान की है।' निज शुद्धस्वरूप में निश्चलरूप से स्थित रहना गुप्ति का नियतस्वलक्षण है। अत: इसकी नियतस्वलक्षण की दृष्टि से 'गुप्ति' संज्ञा है। इसकी सिद्धि में सहायक होने से मन, वचन और काय की प्रवृत्ति के निरोध को उपचार से त्रिगुप्ति नाम दिया गया है। स्वशुद्धात्मस्वभाव में परिणत होना धर्म का नियत स्वलक्षण है। अत: इसे नियत स्वलक्षण की अपेक्षा 'धर्म' शब्द से अभिहित किया गया है। इसमें साधक होने से अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति को उपचार से धर्म कहा गया है। १. (क) “निश्चयेन तु स्वस्वरूपे सम्यग् इतो गतः परिणत: समितः। प्रवचनसार/तात्पर्यवृत्ति ३/४० (ख) “व्यवहारेण तद्बहिरङ्गसहकारिकारणभूताचारादिचरणग्रन्थोक्ता ईर्याभाषैषणादान निक्षेपोत्सर्गसंज्ञाः पञ्चसमितयः।" बृहद्र्व्यसंग्रह/ब्रह्मदेवटीका, ३५ २. “निश्चयेन सहजशुद्धात्मभावनालक्षणे गूढस्थाने संसारकारणरागादिभयात् स्वस्यात्मनो गोपनं ... गुप्तिः। व्यवहारेण बहिरङ्गसाधनार्थं मनोवचनकायव्यापारनिरोधो गुप्तिः।" वही, ३५ ३. “निजशुद्धात्मपरिणतिरूपो निश्चयधर्मो भवति। पञ्चपरमेष्ठ्यादिभक्तिपरिणामरूपो व्यवहारधर्मस्तावदुच्यते।" प्रवचनसार/तात्पर्यवृत्ति, १/८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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