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________________ ५० / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन का नियतलक्षण सिद्ध होता है। इसलिए नियतस्वलक्षणावलम्बिनी निश्चयदृष्टि का अवलम्बनकर जिनेन्द्रदेव ने इन्हें क्रमश: 'हिंसा' और 'अहिंसा' शब्दों से अभिहित किया है। यह आचार्य अमृतचन्द्र के अधोलिखित कथन से ज्ञात होता है - अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । तेषामेवोत्पत्तिर्हिसेति जिनागमस्य संक्षेपः ।।' -- रागादिभावों की उत्पत्ति न होना अहिंसा है और उत्पत्ति होना हिंसा, यह जिनागम का संक्षेप है। रागादिभावों से ग्रस्त होना प्रमाद कहलाता है, इसलिए प्रमादयुक्त होने को हिंसा और प्रमादरहित होने को अहिंसा कहा गया है - स्वयं ह्यहिंसा स्वयमेव हिंसनं न तत्पराधीनमिह द्वयं भवेत् । प्रमादहीनोऽत्र भवत्यहिंसकः प्रमादयुक्तस्तु सदैव हिंसकः ।। - जीव स्वयं अहिंसा है और स्वयं हिंसा। ये दोनों पराधीन नहीं हैं। जो प्रमादहीन है वह अहिंसक है, जो प्रमादयुक्त है वह सदैव हिंसक है। प्रमादहीन होने का लक्षण है जीवरक्षा के प्रयत्न में तत्पर होना। इसलिए जीवों का मरण हो या न हो, जो अयत्नपूर्वक प्रवृत्ति करता है वह हिंसा करता है, जो यत्नपूर्वक आचरण करता है वह अहिंसामय होता है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं - अयदाचारो समणो छस्सुवि कायेसु वधकरोत्ति मदो । चरदि जदं जदि णिच्चं कमलं व जले णिरुवलेवो ।। - यत्नाचाररहित श्रमण छहों कायों के जीवों का वध करनेवाला कहा गया है। यदि वह यत्नपूर्वक प्रवृत्त होता है तो जैसे कमल जल से लिप्त नहीं होता वैसे वह हिंसा से लिप्त नहीं होता। इस तरह रागादि की अनुत्पत्ति या प्रमाद का अभाव अथवा यत्नाचार ही अहिंसा का नियतलक्षण है। अत: नियतस्वलक्षणावलम्बिनी दृष्टि के आधार पर आगम में इसे अहिंसा शब्द से अभिहित किया गया है। किन्तु रागादि के वशीभूत होकर ही जीव परप्राणों के घात में प्रवृत्त होता है अथवा उनकी रक्षा का यत्न नहीं करता जिससे अशुभकाययोग द्वारा प्राणव्यपरोपण होने पर परजीव को पीड़ा होती १. पुरुषार्थसिद्धयुपाय/कारिका, ४४ २. धवला/पुस्तक, १४/५, ६, ९३ ३. प्रवचनसार, ३/१८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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