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________________ २२ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन “नास्ति सर्वोऽपि सम्बन्ध: परद्रव्यात्मतत्त्वयोः।" “सर्वद्रव्याणां परैः सह तत्त्वत: सम्बन्धशून्यत्वात्।' समयसार की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र जी बतलाते हैं कि एक वस्तु का दूसरी वस्तु से कोई सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि दोनों के प्रदेश भिन्न-भिन्न होते हैं, इसलिए उनकी एक सत्ता नहीं हो सकती अर्थात् दो वस्तुएँ मिलकर एक वस्तु नहीं बन सकतीं। जिनका स्वभाव अलग-अलग होता है उनका अस्तित्व भी अलगअलग होता है अर्थात् वे अलग-अलग वस्तुएँ होती हैं : “स्वभावभेदाच्च वस्तुभेद एवेति।"" कोई वस्तु स्वतन्त्र वस्तु है, इसका निश्चय तभी होता है जब उसमें अपने स्वरूप की सत्ता तथा अन्य के स्वरूप की असत्ता ( अभाव ) सिद्ध हो : स्वरूपपररूपसत्ताऽसत्ताभ्यामेकस्य वस्तुनो निश्चीयमानत्वात्।"५ शरीर और आत्मा में एकत्व का निषेध मौलिकभेदावलम्बिनी निश्चयदृष्टि का अनुसरण करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द ने अधोलिखित गाथा में शरीर और आत्मा के एकत्व का निषेध किया है - ववहारणयो भासदि जीवो देहो य हवदि खलु इक्को । ण दु णिच्छयस्स जीवो देहो य कदावि एकट्ठो ।। अर्थात् व्यवहारनय ( संश्लेषसम्बन्धावलम्बिनी व्यवहारदृष्टि ) के अनुसार कहा जाता है कि जीव और देह एक हैं, किन्तु निश्चयनय ( मौलिकभेदावलम्बिनी निश्चयदृष्टि ) से देखा जाय तो जीव और देह कभी एक पदार्थ नहीं हो सकते। इस गाथा के भाव को स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं : जैसे गलाकर मिश्रित किये गए सोने और चाँदी के पिण्ड में एक पदार्थ का व्यवहार होता है वैसे ही आत्मा और शरीर एक क्षेत्र में रहते हैं, इसलिए व्यवहारमात्र से उन्हें एक कहा जाता है, निश्चयनय से नहीं। निश्चयनय से देखने पर अर्थात् स्वभावगत भिन्नता पर ध्यान देने से ज्ञात होता है कि सोना पीतवर्ण है और चाँदी श्वेतवर्ण। इस प्रकार दोनों के स्वभावों में अत्यन्त भिन्नता है, अत: उनका एक पदार्थ होना सिद्ध नहीं होता। इसी प्रकार आत्मा और शरीर के स्वभावगतभेद पर दृष्टिपात करने १. समयसार/कलश, २०० २. प्रवचनसार/तत्त्वदीपिका, ३/४ ३. “न खल्वेकस्य द्वितीयमस्ति द्वयोभिन्नप्रदेशत्वेनैकसत्तानुपपत्तेः।" समयसार/आत्मख्याति/गाथा, १८१-१८३ ४. वही/आत्मख्याति/गाथा, १८१-१८३ ५. वही/आत्मख्याति/गाथा, २०१-२०२ ६. वही/गाथा, २७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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