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________________ निश्चयनय । १७ यह परिभाषा मोक्षमार्ग को दृष्टि में रखकर की गई है।' इसका अभिप्राय यह है कि स्वात्मा के श्रद्धानादि के आधार पर मोक्षमार्ग का निर्णय करनेवाली दृष्टि निश्चयनय है तथा परद्रव्य के श्रद्धानादि के आधार पर निर्णय करनेवाली दृष्टि व्यवहारनय। ये दोनों दृष्टियाँ नियतस्वलक्षणावलम्बिनी एवं उपचारावलम्बिनी दृष्टियों में गर्भित हैं, केवल स्पष्टता के लिए पृथक् रूप से उल्लेख किया गया है। ये समस्त परिभाषाएँ निश्चय और व्यवहारनयों के पूर्वोक्त विषयों और लक्षणों पर प्रकाश डालती हैं। प्रतिनियत लक्षण से पदार्थों की पहचान यहाँ प्रश्न है कि निश्चय और व्यवहारनयों के उपर्युक्त विषयों की पहचान कैसे सम्भव है ? किसी भी वस्तु की पहचान उसके प्रतिनियत लक्षण से होती है।' उसी के द्वारा मूलपदार्थ का निश्चय होता है। उसी के द्वारा आस्रवादि औपाधिक तत्त्वों की पहचान होती है। उसी के द्वारा कर्ता-कर्मादि पर्यायों का निर्णय होता है। वही भिन्न वस्तुओं की भिन्नता का निश्चय कराता है। वही वस्तु और उसके धर्मों की अभिन्नता का निर्णायक है। प्रतिनियत स्वलक्षण वस्तु के उस धर्म को कहते हैं जो उसकी सभी अवस्थाओं में पाया जाता है, किन्तु अन्य किसी वस्तु में उपलब्ध नहीं होता, जिसके कारण वह अन्य सभी वस्तुओं से भिन्न सिद्ध होती है तथा जिसके अभाव में उस वस्तु का अभाव हो जाता है। जैसे शुद्धचैतन्यभाव जीव का ऐसा धर्म है जो उसके १. (क) “आत्माश्रितनिश्चयनयाश्रितानामेव मुच्चमानत्वात्। पराश्रितव्यवहारनयस्यैकान्ते नामुच्यमानेनाभव्येनाप्याश्रीयमाणत्वाच्च।" समयसार/आत्मख्याति/गाथा, २७२ (ख) “एवं पराश्रितत्वेन व्यवहारमोक्षमार्ग प्रोक्त इति। ""शुद्धात्माश्रितत्वेन निश्चय मोक्षमार्गो ज्ञातव्यः।" वही/तात्पर्यवृत्ति/गाथा, २७६-२७७ २. स्वात्मा का श्रद्धान, स्वात्मा का ज्ञान तथा स्वात्मलीनतारूप चारित्र आत्माश्रित ( आत्मविषयक ) भाव हैं तथा जीवादि का श्रद्धान, जीवादि का ज्ञान एवं जीवरक्षादिरूप चारित्र पराश्रित ( परद्रव्यविषयक ) भाव हैं। ३. “यो हि परात्मनोर्नियतस्वलक्षणविभागपातिन्या प्रज्ञया ज्ञानी स्यात् स खल्वेकं चिन्मानं ___भावमात्मीयं जानाति शेषांश्च सर्वानेव भावान् परकीयान् जानाति।" समयसार/आत्मख्याति/गाथा, ३०० ४. “जीवादजीवमिति लक्षणतो विभिन्नम्।" वही/कलश, ४३ ५. "व्यतिकीर्णवस्तुव्यावृत्तिहेतुर्लक्षणम्।" न्यायदीपिका, १/३ ६. "किं लक्खणम् ? जस्साभावे दव्वस्साभावो होदि तं तस्स लक्खणं, जहा पोग्गलदव्वस्स रूवरसगंधफासा, जीवस्स उवजोगो।" धवला ७/२, १, ५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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