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________________ २५२ / जैनदर्शन में निश्चय और व्यवहार नय : एक अनुशीलन होना चाहिए। .... आत्मा में जो विशुद्धि उत्पन्न होती है वह स्वभाव का आश्रय लेने से ही होती है, व्यवहार का आश्रय लेने से नहीं। व्यवहारधर्म गुणस्थानपरिपाटी से होकर भी उत्तरोत्तर गुणस्थानों में छूटता जाता है और स्वभाव के आश्रय से उत्पन्न हुई विशुद्धि उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त होती हुई अन्त में पूर्णता को प्राप्त हो जाती है। इसलिए जो छूटने योग्य है उसका मुख्यता से उपदेश देना न्याय्य न होकर स्वभाव का आश्रय लेकर मुख्यता से उपदेश देना ही जिनमार्ग है, ऐसा यहाँ समझना चाहिए।' उक्त अध्येताओं का मन्तव्य है कि सभी को निश्चयप्रधान उपदेश दिया जाना चाहिए। इसी मान्यता के कारण वे सभी को निश्चयप्रधान उपदेश देते हैं। विद्वानों की यह मान्यता आगम तथा मनोविज्ञान दोनों के विरुद्ध है। आगम में पात्र की योग्यता के अनुसार निश्चयप्रधान अथवा व्यवहारप्रधान उपदेश विहित है, यह ऊपर दर्शाया जा चुका है। सर्वज्ञ ने ही अभेदरत्नत्रय की सिद्धि के लिए भेदरत्नत्रय के अवलम्बन का उपदेश दिया है। अत: सभी को निश्चयप्रधान उपदेश देने का सिद्धान्त आगमविरुद्ध है। इसके अतिरक्त सभी को निश्चयप्रधान उपदेश देना, सभी से एक ही प्रकार का बोझ उठवाने या सभी को एक ही स्तर का पाठ्यक्रम पढ़ाने के समान अमनोवैज्ञानिक है। इससे उपदेश, उपदेश बनकर ही रह सकता है, आचरण में नहीं उतर सकता। स्वभाव का आश्रय ले सकने योग्य बनने के लिए ही व्यवहार का आश्रय लेने का उपदेश दिया जाना आवश्यक है। आचार्य जयसेन ने इसीलिए कहा है कि अभेदरत्नत्रय का साधक होने के कारण भेदरत्नत्रय उपादेय है।' उक्त विद्वानों को सम्भवत: यह भ्रम भी है कि लोगों के संसारभ्रमण का मूल कारण पुण्य को मोक्षमार्ग समझकर शुभक्रियाओं में उलझे रहना है। इसलिए उनकी दृष्टि में लोगों की इस अज्ञानमय मान्यता का निराकरण करना ही उपदेश का प्रमुख लक्ष्य है। इसी कारण वे सबके लिए निश्चयनयात्मक उपदेश ही आवश्यक मानते हैं। पता नहीं ये विद्वान् किस लोक में रहते हैं जो उन्हें संसार में पुण्यात्मा ही दिखाई देते हैं। सत्य यह है कि अधिकांश जीव मोक्ष में ही विश्वास नहीं करते, पुण्य को मोक्षमार्ग मानने वालों की तो बात ही दूर। संसार में अधिकांश संख्या 'ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्' इस सिद्धान्त के अनुयायियों की है। अधिकांश जीव आकण्ठ पाप में मग्न हैं, विरले ही व्यक्ति पुण्य करते हैं। आवश्यकता इस बात १. जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा/भाग २/पृ० ७३१ २. समयसार/तात्पर्यवृत्ति/गाथा ११६-१२०, १६१-१६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002124
Book TitleJain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size12 MB
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